नारी पांव की जूती नही ……
तुम कहते हो कि औरत पांव की जूती होती है तो सुनो , हे पुरुष ! …………………. औरत तुम्हारे पांव की जूती ही सही मगर हे पुरुष ! तुम्हे क्या ये पता है ? कि कभी कभी जूती काटती भी है और अगर काट लिया तो , पांव जख्मी भी होगा और अगर जख्मी होगा तो , लंगड़ाओगे भी तुम्हारी इस लंगडाहट को सभी देखेंगे l देखने वालों में कुछ वो लोग भी होंगे जिनके सामने तुम औरत को पांव की जूती कहकर शेखी बघार रहे थे l उस समय औरत की विजयी मुस्कराहट देखने को नदी , झील , झरने , हवाएं , रागिनी सब थम जाएंगे लेकिन तुमने कभी सोचा है कि तुम्हारे जूती - जूती कहने से नारी ह्रदय को गहरा आघात लगता है l फिर भी ये औरत तुम्हे पूजती है l हे पुरुष ! औरत के होने में ही तुम्हारा वजूद है l कभी मन विवश हो सोचता है औरत होने पर और कभी गुरुर होता है कि , औरत ही जीवन के रंगमंच की कसौटी पर खरी उतरती है पर व्यथित नही होती l औरत के मन में चलते अंतर्द्वंद कहते हैं कि हे पुरुष ! तुमने स्त्री को त्याग तो दिया लेकिन पाया क्या ? स्त्री के मर्मस्पर्शी ह्रदय में सिर्फ शेष रह गई है रुई के नर्म रेशों सी , आँखों की एक कोर से दूसरे कोर तक फैले नील