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Showing posts from June, 2021

अरे ओ बुधवा “तोहे लड़की पैदा भई है”

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  अरे ओ बुधवा “ तोहे लड़की पैदा भई है ” मेरी स्मृतियों के झरोखों से घुमड़ घुमड़ कर बारम्बार एक याद मेरे जहन को झकझोरती रहती है , जो मेरे मानस – पटल पर अमिट छाप छोड़ चुकी है L वो कहते हैं कि जो जीवन की बहुरंगी घटनाओं में से उभरकर अपनी छवि बारम्बार दिखाती चले वही जीवन का यथार्थ है। ये स्मृति मेरे स्मृति – पटल पर चित्र सी टँक गयी है l ज्यादातर घरों में लड़की पैदा होने के बाद पैदा हुई परिस्थितियाँ वातावरण में मायूसी छा देतीं है , “ लड़की पैदा हुई है ” सुनकर जैसे सांप सूंघ जाता हो l आज के बदलते युग में लड़कियां किसी मामले में लड़कों से कम नहीं हैं। लेकिन समाज में आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जो बेटे की चाहत में कुछ इस कदर अंधे हो गए हैं कि बेटियों को फूटी आंख से भी देखना गंवारा नहीं समझते। यहां तक कि बेटी पैदा करने पर न केवल महिलाओं को प्रताडि़त किया जाता है बल्कि उनको इस नजर से देखा जाता है जैसे इन्होंने बेटी पैदा कर कोई गुनाह कर दिया हो l अधिकतर लोगों के मुंह से “ लड़की पैदा हुई है ’ ये सुनकर सारा प्रगतिवाद , सारा आधुनिकतावाद धरा का धरा रह जाता है लगता है जैसे एकाएक तेज़ स्पीड की गाड़ी को ब्रेक लग

“माँ” परमात्मा की स्वयं एक गवाही है…

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  कहते हैं गुरुकुल में शिक्षा केवल सैद्धांतिक नही होती थी , बल्कि व्यवहार और वास्तविकता का भी शिक्षा से उतना ही संबंध होता था , जितना कि सैद्धांतिक अध्यन और अध्यापन का होता था l वैसे आज के युग में भी गुरु और शिष्य का रिश्ता समर्पण के आधार पर टिका होता है। जीवन समर को पार करने के लिए सद्गुरु रूपी सारथी का विशेष महत्व होता है। कहते हैं शिष्य के लिए तो गुरु साक्षात् भगवान ही होता है। वह समय समय पर समुचित मार्गदर्शन कर शिष्य को आगे बढ़ाता रहता है। खासकर आध्यात्मिक सफलता की दिशा में बढ़ना हो तो गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य रूप से लेना पड़ता है। भारत में हजारों साल तक गुरु शिष्य परंपरा फलती-फूलती रही और आगे बढ़ती रही है। हमारी संस्कृति में गुरु अपने शक्तिशाली सूक्ष्म ज्ञान को अटूट विश्वास , पूर्ण समर्पण और गहरी घनिष्ठता के माहौल में अपने शिष्यों तक पहुंचाते थे। परंपरा का मतलब होता है ऐसी प्रथा जो बिना किसी छेड़ छाड़ और बाधा के चलती रहे। दूसरे शब्दों में कहें तो यह ज्ञान बांटने की अटूट श्रृंखला है। एक दिन गुरु जी अपने शिष्यों को माँ की अहमियत को समझा रहे थे l बोले कि , बच्चे की पहली गुरु उसक

स्त्री का सूक्ष्म संघर्ष स्त्री से ही है

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  आज इस आधुनिक युग में भी, समस्त संसार में नारी के लिए कहीं तो बहुत ही उपजाऊ भूमि उपलब्ध है, और कहीं कहीं वो बंजर जमीन सी असहाय होकर पथरीली चुभन को सह रही है ।  आज कहने को भले ही महिलाएं आधुनिकता का दंभ भरती हो, अब ऐसे में आप क्या कहेंगे |  में ये नहीं कहती कि पुरुष अत्याचार नहीं करते | आज नारी योग्यताओं के शिखर पर जा कर भी, दहेज़ की बलि चढ़ी तो कभी, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, बलात्कार से छली गई तो कभी, परित्यक्ता बनी, तो कभी किसी के घर को उजाड़ने का कारण बनी, बजह अगर देखी जाये तो यही निकल कर सामने आती है कि स्त्री ने कभी पुरुष और पुरुष ने स्त्री पर जहाँ विश्वास नहीं किया वहाँ नारी ना श्रद्धा बनी ना पुरुष को ही मान सम्मान मिला।  अगर ये मान भी लिया जाये कि, नारी पर हो रहे अत्याचारों में सबसे बड़ा हाथ पुरुषों का है, तो मैं ये कहने से भी पीछे नही हटूंगी कि, नारी भी नारी पर अत्याचार करने में पीछे नहीं हटती | कहते हैं कि स्त्री का सूक्ष्म संघर्ष स्त्री से ही है। समूची नारी जाति को ये समझना होगा कि, जिस तरह कभी रक्त को रक्त से नहीं धोया जा सकता, आग से आग को नहीं बुझाया जा सकता, क्रोध से क्रोध क

रुक्मणी का अस्तित्व.

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  मैं जब सुबह अपनी आँखे खोलती हूँ तो तुम्हारा मासूम सा चेहरा मेरी आँखों के सामने तैरने लगता है L क्या यही प्यार की पराकाष्ठा है । तुझे तो ये भी  खबर नहीं  कि मेरा इकतरफा प्रेम समूची कायनात को अपने आपमें समेटे हुए दिन व दिन परवान चढ़ रहा है । क्या ये राधा की इबादत है या फिर मीरा जैसा पवित्र प्रेम । या फिर ये उन गोपियों जैसा है जो सिर्फ मुरली की दीवानी थी । अरे हाँ मैं भी तो तेरी आवाज़ की दीवानी हूँ क्योंकि तू मुरली तो बजा नही सकता । राधा जैसी मैं किस्मत लेकर आई नही, जो तेरे नाम के साथ जुड़ सकूँ । हाँ मैं मीरा सा प्रेम करती हूँ एकदम निश्छल प्रेम । नही यकीन तो इक विष का प्याला मुझे भेज दे, जिसे मैं तेरे नाम से पी लूँ और अमर हो जाऊं। हाँ ऐसा अनोखा प्रेम है मेरा। ये बैचैन दिन, बैचेन राते और बैचेन पल छिन अपने आपमें  कितनी जद्दोजहद करते हैं सिर्फ तुझसे ये कहने के लिए क़ि मुझे तुझसे प्यार है । हाँ ये अलग बात है कि तुझसे कभी ये नही कहूंगी कि, मुझे तुझसे प्रेम है अगर पढ़ सकते हो तो मेरी बैचेनियों में पढ़ लो, मेरी आँखों के सूनेपन में पढ़ लो, मेरी वीरानियों में पढ़ लो । क्योंकि, मैं अहिल्या की तरह शिला नह

मां और सुबह की पालक

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रितिका रक्षाबंधन पर कुछ दिनों के लिए अपने मायके कानपुर आई हुई थी। रितिका के बेटों के कारण घर में खूब चहल-पहल थी। पूरे घर में रितिका के दोनों बेटे ‘नानी मेरे साथ खेलो’ ऐसा कहते हुए थकते नहीं थे। मां भी समय निकालकर रितिका के बेटों के साथ कभी घर के बरामदे में और कभी लॉन में ना  खेलने के बहाने ढूंढती  रहती। क्योंकि मां को अपने बेटों का भी ध्यान रखना है और रितिका को भी समय देना है। रितिका के आने से मां को जैसे पंख लग गए थे, क्योंकि रितिका मां की इकलौती बेटी थी। रितिका की शादी हुई और उसके बाद मुंबई में ही किसी अच्छी कम्पनी में काम करने लगी थी। नौकरी और बच्चों की देखभाल के साथ रितिका को अपने सास-ससुर का पूरा ख्याल रखना पड़ता था। जॉब करने के कारण छुट्टी कम ही मिल पाती थी। अपनी व्यस्तता के चलते रितिका पूरे आठ साल बाद मायके आई हुई थी। मायके में सब कुछ बदला-बदला सा था। अगर कुछ नहीं बदला था, तो वह सिर्फ मां ही थी, जो पहले की ही तरह हर कार्य समय पर करने की सोचती थी, ताकि बेटों को अच्छे से अच्छा खाना बनाकर खिला सकें। साथ ही उनकी हर जरूरत को समय पर पूरा कर सकें। मां का काम करने का वही पुराना अंदाज था