मां और सुबह की पालक


रितिका रक्षाबंधन पर कुछ दिनों के लिए अपने मायके कानपुर आई हुई थी। रितिका के बेटों के कारण घर में खूब चहल-पहल थी। पूरे घर में रितिका के दोनों बेटे ‘नानी मेरे साथ खेलो’ ऐसा कहते हुए थकते नहीं थे। मां भी समय निकालकर रितिका के बेटों के साथ कभी घर के बरामदे में और कभी लॉन में ना  खेलने के बहाने ढूंढती  रहती। क्योंकि मां को अपने बेटों का भी ध्यान रखना है और रितिका को भी समय देना है।
रितिका के आने से मां को जैसे पंख लग गए थे, क्योंकि रितिका मां की इकलौती बेटी थी। रितिका की शादी हुई और उसके बाद मुंबई में ही किसी अच्छी कम्पनी में काम करने लगी थी। नौकरी और बच्चों की देखभाल के साथ रितिका को अपने सास-ससुर का पूरा ख्याल रखना पड़ता था। जॉब करने के कारण छुट्टी कम ही मिल पाती थी।

अपनी व्यस्तता के चलते रितिका पूरे आठ साल बाद मायके आई हुई थी। मायके में सब कुछ बदला-बदला सा था। अगर कुछ नहीं बदला था, तो वह सिर्फ मां ही थी, जो पहले की ही तरह हर कार्य समय पर करने की सोचती थी, ताकि बेटों को अच्छे से अच्छा खाना बनाकर खिला सकें। साथ ही उनकी हर जरूरत को समय पर पूरा कर सकें।
मां का काम करने का वही पुराना अंदाज था। रितिका को सफर की थकान के कारण नींद आ गई।
अचानक उसकी आंख खुली, तो गला सूख रहा था, उसने सोचा पानी पी लिया जाये। रितिका कमरे से बाहर आई, तो रसोई से बर्तनों की आवाज़ देर रात तक आ रही थी और साथ ही रसोई का नल चल रहा था। वह समझ गई कि मां रसोई में हैं।
तीनों बहुएं अपने-अपने कमरे में सो चुकी थीं। मां रसोई में थीं, क्योंकि मां के हिसाब से काम बकाया रह गया था, लेकिन काम तो सबका था। पर मां तो अब भी सबका काम अपना समझकर करती थी और शायद ये बात बहुओं को हजम नहीं होती थी।
बहुओं को यह एहसास नहीं था कि मां, मां होती है। वही रोज का काम, दूध गर्म करके फिर ठंडा करके दही जमाना, ताकि बेटों को सुबह ताज़ा दही मिल सके। दूध सुरक्षित रहे फटे नहीं, ताकि तीनों बेटे सुबह दूध की चाय पी सकें।
छोटी भाभी ने छोटे भैया से कहा, प्लीज़ जाकर ये ढोंग बन्द करवाओ कि रात को सिंक खाली रहना चाहिये। इन ढकोसलों के कारण ही मेरे मायके वाले यहां आते नहीं हैं। तरस गई हूं अपनी मम्मी को यहां बुलाने के लिए। दिन-रात मेरी मम्मी वहां मेरे भाइयों के लिए खटती रहती हैं और मेरी भाभियां चैन से सोती रहतीं हैं। 
ये कहते हुए छोटी ने चादर ओढ़कर मुंह ढंक लिया। छोटी भाभी की ये बात सुनकर भाई जोर से चिल्लाया, तेरी मां तेरे भाइयों के लिए काम करती हैं, तो तुझे दुःख होता है और मेरी मां यहां दिन-रात खटती है, तो तू इसे ढकोसला कह रही है। क्या मेरी मां,  मां नहीं है?

मां का मन उदास हो गया था, क्‍योंकि मां के कानों में छोटे के चिल्लाने की आवाज़ पड़ चुकी थी। मां अब तक बर्तन मांज चुकी थी। झुकी कमर, कठोर हथेलियां, लटकी सी त्वचा, जोड़ों में तकलीफ, आंख में पका मोतियाबिन्द, माथे पर टपकता पसीना और पैरों में उम्र की लड़खडाहट, लेकिन उफ की आवाज़ तक नही करतीं, क्‍योंकि मां, मां होती है।

तीनों बेटे अपनी पत्नियों के ताने सुनकर कसमसाकर रह गए। घड़ी की सुइयां थककर 12 बजा चुकी हैं। दूध ठंडा हो चुका है। मां ने दही भी जमा दिया है। सिंक भी साफ़ कर दिया है, लेकिन मां थकी नहीं, क्‍योंकि अभी थोड़ा काम और बाकी है।
बहुओं की बातों से मां का मन आहत हो चुका था। बुझे मन से मां ने रेफ्रिजरेटर से पालक निकाली और पालक में से गली हुई एक-एक पत्ती यूं हटाने लगीं, जैसे वो अपने बच्चों के जीवन से एक-एक तिनका दुख छांट कर अलग कर रही हों। ऐसा करने से मां के चेहरे पर एक सुकून की सांस नजर आ रही थी।
रात के साढ़े बारह बज चुके हैं और मां सुबह के लिए पालक साफ कर चुकी हैं। काम  समाप्त करते ही मां बिस्तर पर निढाल सी लेट गईं।
बगल में एक नींद ले चुके पिता जी की आवाज़ सुनाई दी…  रितिका की मां, आ गई क्या। मां की धीमी सी आवाज़ सुनाई दी… हां,  आज ज्यादा काम ही नहीं था, इसलिए आराम से कर रही थी। ये कहते-कहते मां लेट गई। 

मैं सोच रही थी कि कल की चिन्ता में पता नहीं मां को नींद आती होगी या नहीं। पर सुबह वो जब उठती हैं, तो थकान रहित होती हैं, क्योंकि वो मां हैं। सुबह अलार्म बाद में बजता है और मां की नींद पहले खुलती है।
कभी-कभी सोचती हूं कि यही नारी जीवन है। बेटी जब बहन बनती है, तो भाई के रिश्ते में रक्षा समेटती है। जब दुल्हन बनती है, तो अपना वजूद समेटकर नए परिवार को सहेजती है और जब मां बनती है, तब दुनिया के सारे सुख एक तरफ और ममता का सुख एक तरफ ।
मां बनकर ही वो समूची कायनात में अपनी खुशबू बिखेर पाती है। ममता की सुगंध उसके रोम-रोम को पल्लवित करती है, क्योंकि मां, मां होती है।
मां को गंदगी अच्छी नहीं लगती, इसलिए चाहे तारीख बदल जाये, सिंक में रखे बर्तन मां को कचोटते रहते। सिंक साफ होना चाहिये। 
बड़ी भाभी ने बड़े भैया से चिढ़कर कहा, तुम्हारी मां को नींद नहीं आती। न खुद सोती हैं, न सोने देती हैं और गुस्से से तकिया पटककर दूसरी तरफ मुंह करके सो गई।
मंझली भाभी ने मंझले भैया से कहा, अब देखना सुबह चार बजे तुम्हारी मा की खटर-पटर फिर शुरू हो जायेगी। तुम्हारी मां को चैन नहीं है क्या? न जाने कब चैन की नींद मिलेगी।

भाई लोग भी अपनी-अपनी पत्नियों द्वारा कहे हुए रोज के इन वाक्यों के अब आदी हो चुके थे l इसलिए करवट बदल के सो गए l लेकिन रितिका सोचती रही कि माँ गलत नहीं है, माँ तो अपनी जगह सही हैं, क्‍योंकि रात के बगैर धुले जूठे बर्तन पड़े रहने से कॉकरोच जैसे कीड़े कुलबुलाने लगते हैं। मां रोज-रोज बहुत धीरे-धीरे और बिना आवाज़ किये रसोई का काम निपटाती  रहती थी, फिर भी एकाध बार आवाज़ हो ही जाती थी, जिससे बहु-बेटों की नींद में खलल पड़  जाती थी। और माँ को बहुओं के कटु शब्द सुनने को मिल जाते थे. 


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