अरे ओ बुधवा “तोहे लड़की पैदा भई है”
अरे ओ बुधवा “तोहे लड़की पैदा भई है”
मेरी स्मृतियों के झरोखों से घुमड़ घुमड़ कर
बारम्बार एक याद मेरे जहन को झकझोरती रहती है,
जो मेरे मानस–पटल
पर अमिट छाप छोड़ चुकी है L
वो कहते हैं कि जो जीवन की बहुरंगी घटनाओं में
से उभरकर अपनी छवि बारम्बार दिखाती चले वही जीवन का यथार्थ है। ये स्मृति मेरे
स्मृति–पटल पर चित्र सी टँक गयी है l ज्यादातर
घरों में लड़की पैदा होने के बाद पैदा हुई परिस्थितियाँ वातावरण में मायूसी छा
देतीं है, “लड़की पैदा हुई है” सुनकर
जैसे सांप सूंघ जाता हो l आज के बदलते युग में लड़कियां किसी मामले में
लड़कों से कम नहीं हैं। लेकिन समाज में आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जो बेटे की चाहत में
कुछ इस कदर अंधे हो गए हैं कि बेटियों को फूटी आंख से भी देखना गंवारा नहीं समझते।
यहां तक कि बेटी पैदा करने पर न केवल महिलाओं को प्रताडि़त किया जाता है बल्कि
उनको इस नजर से देखा जाता है जैसे इन्होंने बेटी पैदा कर कोई गुनाह कर दिया हो l अधिकतर
लोगों के मुंह से “लड़की पैदा हुई है’ ये
सुनकर सारा प्रगतिवाद, सारा आधुनिकतावाद धरा का धरा रह जाता है लगता
है जैसे एकाएक तेज़ स्पीड की गाड़ी को ब्रेक लग गए हों। कई मामलों में मां बनने वाली
महिला के दिमाग में काफी पहले से यह बात भरी दी जाती है, कि
अगर उसने लड़के को जन्म नहीं दिया तो परिवार और समाज में उन्हें सम्मान नहीं
मिलेगा l अगर बचपन से ही खुद उस महिला ने समाज में दोयम
दर्जे का व्यवहार ही झेला है तो वह अपनी इस संभावित अवनति से और भी परेशान हो जाती
है.
लड़की पैदा होने के समाचार को पिता को ऐसे सुनाया
जाता है जैसे कोई आघात लगा हो l कैसी विडम्बना है हमारे समाज की, जहाँ
एक इंसान (बेटी) के जन्म की खबर को मौत के समाचार की तरह सुनाया जाता हो l जब
एक परिवार में सुन्दर सी कन्या जन्म लेती है तो बाप दुखी हो जाता है सोचता है अगर
बेटा पैदा होता, तो कम से कम काम में हाथ बटाता l यही सोच के चलते वो बेटी को पालता तो जरूर है, लेकिन
दिल से नही.
कई वर्ष पहले की बात है निर्मला के बेटी पैदा
हुई थी l निर्मला के लिए वो इक भयानक रात थी l एक बेटे की चाह में बेटी पैदा हो गई और वो भी
नसीबों जली, जिसके नसीब में शायद ही परिवार का प्यार था l
अरे ओ बुधवा ! “ई करमजली निर्मलिया ने लड़की जनी है अब
का हुइए हमार बेटवा का l पूरी जिन्दगी रुपया इकठ्ठो करवे में निकर जइए l” सास
की तेज़ आवाज सकारात्मकता के शांत वातावरण को बुरी तरह चीर डालती सी महसूस हो रही
थी । पिता “बुधवा” के चेहरे का मानो खून ही निचुड़ गया था l उधर
गाँव में खुसर पुसर हो रही थी कि बुधवा के घर बेटी पैदा हुई। उसके दोस्त मंगलू ने
कहा, ‘भाई, बेटी का बाप होना बड़ी मुश्किल की जिम्मेदारी
है।
सास की ऊँची आवाज़ को सुनकर निर्मला अन्दर तक
टूट कर रह गई l लेकिन
पति को अपनी और आते देख निर्मला ने डबडबाई आँखें पोंछते हुए अपना मुँह अपराधबोध से
ग्रसित हो दूसरी ओर फेर लिया। निर्मला को लग रहा था जैसे उसने कोई अपराध कर दिया
हो l उधर
बुधवा चिल्लाये जा रहा था निर्मला तूने इ का करो l हमार करेजा तौ मुंह को आवत है जब जा
मोड़ी 16 साल की हुइ जइए, तब जाको ब्याह करन पड़ी” का
करी हम l हमे
जई चिंता खाए जात है l जमाना
बहुत बिगरो भओ है पता नाहीं कहां ऊंचे नीचे पैर डारि दे, तो
समाज में हमाई नाक कटि जइए l निर्मला कमरे के बाहर चल रहे कटु वचन सुनकर
अन्दर ही अन्दर टूट रही थी, उधर सास के व्यंग्य बाण क्या कम थे निर्मला के
लिए जो अब आते ही पति के ताने सुनने को मिल रहे थे, उसे ऐसा लग रहा था कि बेटी जनकर उसने
पता नहीं दुनिया का कौन सा भारी नुकसान कर दिया है।
ऐसी विडम्बना पर स्त्री विमर्श के दौर में
समूची नारी जाति पर एक जोरदार चाँटा है l इस
आधुनिक युग में नारी शक्ति का इससे बड़ा अपमान,
इससे बड़ी रुसवाई और क्या होगी, कि
निर्मला का बेटी जनना महापाप हो गया है।
समय बीता और धीरे धीरे सब सामान्य होने लगा l जब
भी बुधवा निर्मला के सामने आता तो कोई संवाद नहीं, कोई बातचीत नहीं, बस
एक दूजे को अनदेखा करना। जहाँ शब्दों की सीमा समाप्त हो जाती है, वहाँ
आँसू भाव पूरे करते हैं l इस
बीच उसने कभी बेटी को गोद में नहीं लिया और ना ही कभी उसे दुलार किया l बेटी 14 साल की हो गई l बुधवा जब भी काम से वापस आता, तो
बेटी पिता को थका देखकर उदास हो जाती, भागकर
पानी ले आती लेकिन बुधवा हिकारत भरी नजर से दुत्कार देता l निर्मला ये सब देखकर अनदेखा कर देती, बुधवा
को पिंकी (बेटी) के भविष्य की कोई चिंता ना थी l उसकी पढाई से उसे कोई मतलब नहीं था, लेकिन
निर्मला उसकी पढ़ाई को लेकर बेहद सजग थी बेटी ने 12 क्लास में डिस्टिक टॉप किया था लेकिन
बुधवा के लिए ये बात कोई मायने ना रखती थी l
पिंकी की आवाज सुनकार ही बुधवा
तनावग्रस्त हो जाता था, दुखी हो जाता था, लेकिन बुधवा की इस बात से निर्मला को
सर्वाधिक दुःख होता था वो दिन ब दिन अपराध बोध से ग्रस्त होती जा रही थी l लेकिन निर्मला ने हार ना मानी पिंकी को खूब
पढ़ाया उसका एक ही सपना था कि बेटी को पढ़ा लिखाकर उसके पैरों पर खड़ा करना है l पिंकी
पढाई में तेज़ होने के कारण दिन बा दिन आगे बढती जा रही थी l उधर
एक दिन बुधवा काम से निपटकर चाय की दुकान पर दोस्तों के साथ चाय की चुस्कियां ले
रहा था l इस दौरान टीवी पर पिंकी का साक्षात्कार देखकर
हैरान रह गया l पिंकी ने पीसीएस की परीक्षा में दूसरा स्थान
प्राप्त किया था l बुधवा का वही दोस्त मंगलू जिसने कहा था कि “भाई, बेटी
का बाप होना बड़ी मुश्किल की जिम्मेदारी हैं l”
बोला अरे ओ बुधवा ! ई ता अपनी पिन्किया
है रे, कैसी पटर पटर अंग्रेजिया बोलत बा l काहे
टीवी में बोलत है l बुधवा चाय को छोड़कर तेज़ी से घर की और भागा l पसीने
से तर बतर बुधवा घर में घुसते ही बरामदे में बैठ गया और जोर जोर से रोने लगा l बुधवा
को रोते देख घर के सारे सदस्य इकठ्ठे हो गये और बोले “का
हुई गयो बताओ ता तनिक, ऐसे काहे रोवत हो l पिता
को रोते देखकर पिंकी डर के मारे सहम गयी l बुधवा बोला “आज अपनी पिन्किया टीवी मां आवत रही l कित्तो
बड़ो काम कर दयो है जाने, हम नाही जानत रहे हमार बिटेवा इत्ती होशियार
रहे l हम तो जाको रोज़ कोसत रहे, सोचत
हते कि कैसन बड़ा पार हुइए जाको l आज हमार बिटेवा ने हमाओ सर ऊँचो कर दयो l हम कैसन अपनी बिटेवा से मांफी मांगे l”
बुधवा सबकी नजर बचाकर पिंकी को देखता फिर बोलता
l लेकिन
उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि पिंकी को प्यार से अपने पास बुलाके लाड़ कर ले l लेकिन
दिमाग से तेज़ तरार पिंकी ये समझ चुकी थी कि पिता अपने व्यवहार से दुखी है l पिंकी
पिता के पास गई और अपने दुपट्टे से पिता का पसीना पोंछते हुए बोली, पापा
! मैं आपकी बेटी भी हूँ और बेटा भी l एक बेटी के लिए पिता का प्यार ही एक मुठ्ठी सुख
जीवन का आधार है और जीवन की सार्थकता भी.
पापा ! यह एक कटू सच्चाई है कि बेटी को जितनी मां
की ज़रूरत होती है उतनी ही पिता की भी जरूरत होती है। क्योंकि दोनों एक-दूसरे के
पूरक हैं। मां की गोद जहां उसके जीवन में धरती की भांति सुकून देती है वहीं पिता
का अवलंबन आकाश की भांति उसे अपनी छाया में लेकर सुरक्षा का अहसास दिलाता है। पिता
का साया बढ़ती बेटी को भावनात्मक सहारा देता है, जो अकेली मां भरपूर सुविधा देकर बेटी
को पूरी तरह से नहीं दे पाती। बेटी को जि़म्मेदार नागरिक बनाने में पिता की
महत्वपूर्ण भूमिका होती है। “जब हमारे घर बेटी पैदा होती है, तो
हमारी जिम्मेदारी, उसे बेटी से “बहूँ”, बनाने की है। अगर हमने, अपनी
जिम्मेदारी ठीक तरह से नहीं निभाई, बेटी में बहु के संस्कार, नहीं
डाले, तो इसकी सजा, बेटी के साथ साथ माँ बाप को भी मिलती
हैं, जो बेटी के ससुराल से “जिन्दगी
भर गालियाँ” के रूप में मिलती रहतीं हैं पिता और बेटी का रिश्ता कितना खास होता है L पापा
! आपका हाँथ सदैव मेरे सर पर रहे, ऐसी उम्मीद मैं हमेशा करुँगी । और मेरे पापा तो
सबसे प्यारे हैं, मैं आज जो भी हूं उसमें आपका बड़ा योगदान है l लोगों
ने आपको बहुत कुछ कहा, पर आपने कभी भी मेरी पढाई को नहीं रोका, मेरे
कालेज जाने पर कभी रोक नहीं लगाई l मैंने अपने कैरियर में जितनी भी सफलता पायी है, उसका
श्रेय मेरी प्रतिभा से ज्यादा मेरे मम्मी-पापा की मेहनत को जाता है L
मम्मी ! यहाँ मैं ये कहना चाहूंगी कि एक कामयाब
बेटी के पीछे बाप का हाथ होता है। इसका अर्थ मां का महत्व या दर्जा कम होना नहीं
है। ये सत्य है कि बेटी के पिता को पहले अपनी पुत्री को आर्थिक सक्षम बनाने के
बारे में सोचना चाहिए बाद में उसके विवाह और गौने के बारे में। बेटी की इतनी गहरी
बात ने बुधवा को अन्दर तक हिला दिया l बुधवा सोच रहा था इतनी गुनी मेरी बेटी और मैं
इसे दुतकारता रहता था, ये सब कैसे सहन किया होगा मेरी बेटी ने L
आम तौर पर देखा जाये तो देहात और निम्न मध्यम
वर्ग में तो आज भी पिता बड़ी हद तक एक डिक्टेटर का किरदार निभाता है.
परिवार के दैनिक और दूरगामी फ़ैसले उसी के
हाथों में होते हैं आज की बेटी पिता के लिए कोई बोझ या जिम्मेदारी बनकर नहीं रह गई
है, बेटियों के पैदा होने पर अक्सर मुंह बनाने वाले
माता-पिता के लिए बेटियां सीख का कार्य कर रही हैं। बेटियां राष्ट्रीय ही नहीं
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रही हैं और उनका नाम रोशन कर रही हैं जब बेटियों
को लगता है, कि उनके पिता उनके साथ भेदभाव करते हैं, तो
उनके मन में असुरक्षा की भावना घर करने लगती है, बेटी के मन में असुरक्षा की भावना न
पनपे इसके लिए बेटियों को खूब प्यार व लगातार दुलार दें।
मां से ज्यादा घर का मुखिया होने के कारण पिता
का यह कर्तव्य बनता है, कि बेटियों के सही विकास के लिए उन पर किसी तरह
का दबाव न डालकर उन्हें स्वाभाविक रूप से बढने दें।
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक
इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
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