इस आधुनिक युग में स्त्री आज भी पुरुषों के समकक्ष नहीं(सच का आइना )
बॉक्स ..... स्त्रियों को
लेकर हमारी सामाजिकता में आज भी वही तय मानक हैं जो पुरुषवादी मानसिकता ने तय कर
रखे हैं. स्त्री-पुरूष में विषमता की जड़े तो मुझे इस पढ़े लिखे वर्ग में भी कम
होते दिखाई नहीं देती.......
भारतीय संविधान भले ही
प्रत्येक नागरिक के समान अधिकार की घोषणा करता हो लेकिन स्त्री आज भी पुरुषों के
समकक्ष नहीं है. वो सारे अधिकार जो एक पुरुष को जीवन के प्रथम क्षण से मिलते है वो
स्त्रियों को नहीं मिलते l इस भारतीय समाज में जीवन के किसी न किसी मोड़ पर उसे यह
अहसास करा दिया जाता है कि वह स्त्री है. सच तो ये है कि हमारे पुरुष-प्रधान समाज स्त्री
अधिकारों में स्त्री अस्तित्व के भ्रम को अभी तक स्त्री अधिकारों को ठीक तरह
से परिभाषित न किया जाना ही सबसे बड़ा मूल
कारण है. क्योंकि स्त्रियों को लेकर हमारी सामाजिकता में आज भी वही तय मानक हैं जो
पुरुषवादी मानसिकता ने तय कर रखे हैं. स्त्री-पुरूष में विषमता की जड़े तो मुझे इस
पढ़े लिखे वर्ग में भी कम होते दिखाई नहीं देती . क्योंकि स्त्री खुद चुटकी भर
सिंदूर और मंगलसूत्र सहित लाल जोड़े में लिपटी हुई अपने आपको एक बने बनाये खांचे
में फिट होते देखने और हर उस बात पर खरी उतरने में अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानती
है. सोचने का विषय है कि कितने प्रतिशत परिवारों में बैंक में स्त्री का पर्सनल
एकाउंट या ज्वांइट एकाउंट और घर पति और पत्नी दोनों के नाम पर होता है ? कहने को कोई
कितना भी कहे पर ये कड़वी
सच्चाई है कि बिना
पति की आज्ञा
से पत्नी बैंक से कोई पैसा नहीं
निकाल सकती. कुछ
प्रतिशत छोड़ दिया जाए
तो लगभग हर
परिवार का यही
हाल है. नौकरी
पेशा महिला भी अपनी
कमाई का पैसा
बिना पति के
पूछे अपने ऊपर खर्च
नहीं कर सकती.
ये सत्य है कि कुछ
अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मध्यम-वर्ग की हर स्त्री अपने सामान्य परिवारिक
अधिकारों को ही नहीं जानती. यह धारणा तो पुरातन काल से चली आ रही है. कि पहले
स्त्री का दायरा घर-परिवार तक ही सीमित था,
इन हालातों में
स्त्रियों को घर की किसी बहुमूल्य वस्तु के समान अत्यंत कीमती माना जाता था.
सच तो ये है कि समाज का
एक बहुत बड़ा वर्ग सदा से पुरुष प्रधान ही रहा है
तो पुरुष के परिवार की स्त्री उसके लिए उसकी जिम्मेदारी और कीमती वस्तु के
सामान हो गई है और स्त्रियों का सुख उसके रूप,
गुण और परिवार तक
सीमित ही रहा और पुरुषों का कार्य उसकी कमाई,
पैतृक संम्पत्ति
और मुखिया का रोल अदा करने में रहा इसलिए पुरुष 'मर्द' और सबसे अहम् माना जाने लगा क्योंकि वो स्त्री की साज-
संभाल, उसकी देख-रेख करने में
सक्छ्म था और जो पुरुष नहीं कर सका वो नामर्द कहलाया l इसी धारणा का विकृत रूप कुछ
यूँ सामने आया कि समाज के इस शक्ति-सम्पन्न वर्ग (मर्द) ने अपने बैर को साधने या
आपसी कटुता का बदला लेने की खातिर अपनी प्रतिस्पर्धी स्त्रियों को निशाना बनाकर
स्त्रियों को कभी अपने से ऊपर का दर्जा नहीं दिया. अब इस स्थिति में स्त्री का
अस्तित्व 'जीव' नहीं वरन 'वस्तु' वाला रह गया .......पर समय के बदलते ही और वक्त के साथ-साथ
स्त्रियों ने स्वयं को हर क्षेत्र में साबित तो कर दिया किन्तु अहमी पुरुष समाज की
मानसिकता तो वही बनी रही जो वर्षों से थी और बहुत गहरे पैठी थी. आज भी पुरुषवादी
मानसिकता वाले पुरुष किसी भी रूप में स्त्री को अपमानित कर यह भ्रम पाल लेते है कि
उसने फतह हासिल कर ली l परन्तु इस प्रकार की मानसिकता वाले व्यक्ति मनुष्यता का
दुरूपयोग कर कुरीतियों को जनम देते हैं l स्त्री समाज को उत्तम नजरिये से देखने के
साथ-साथ उसका आंकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है. स्त्री
सही मायने में इस दौर में ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरी है. ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्री
को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे वो दर्जा आज भी नहीं दे
पा रहे आज की इक्कीसवी सदी में भी
स्त्रियों को स्त्री-पुरुष समानता की बातें बेमानी लगती है क्योंकि स्त्रियाँ
जानती हैं कि हकीकत क्या है. जैसे कि अगर कोई स्त्री यदि स्त्री-पुरुष समानता की
हिमायत में अपने विचार प्रकट करती है तो उसे पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित पुरुष
कभी भी सहज नहीं लेते और टीका टिप्पड़ी इतनी बेहूदी करते हैं जो कि समाज में रहने
वाली स्त्रियों के हित में नहीं होती और मेरे इस लेख और मेरे इन विचारों पर भी कई
पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित पुरुष नाकारात्मक टिप्पड़ी कर सकते हैं.
सच तो ये है कि स्त्रियों
की समानता की बात पुरुषवादी मानसिकता के पुरुषों को कभी भी हजम नहीं होती और यदि
कोई स्त्री अपने प्रगतिशील या स्त्री-मुक्ति के विचारों को जनसमक्ष रखती हैं तो ये
पुरुषवादी मानसिकता के पुरुष उसमें पश्चिमी सभ्यता का आंकलन करने लगते हैं और जैसे
ही कोई स्त्री-पुरुष समानता की बात करेगा तो इन पुरुषों को पश्चिम सभ्यता दिखाई
देने लगती है. और ये कहने की बात नहीं है समझते सभी हैं कि किसी स्त्री द्वारा
लिखे गए सच को ग्रहण करना पुरुषों के लिए कितना कठिन है l इस पुरुषवादी मानसिकता
के स्पष्ट है कि जब तक हम परम्परावादी बने रहेंगे इन तत्वों में से स्त्रिओं के लिए
कुछ नहीं निकलने वाला और निकलेगा भी तो पौरुष का अहम्.
आज के आधुनिक युग में
स्त्री की आंतरिक शक्ति को दुत्कारना कोई न्याय नहीं यदि हम इतिहास पर नजर डालें
तो हमें स्त्रियों की वीरता की अनंत मिसालें मिलेंगी. जो एतिहासिक युग से लेकर आज
के युग में भी देश का गौरव बढ़ा रही हैं. ये मजाक की बात नहीं ये उन पुरुषवादी
मानसिकता वाले पुरुषों के लिए एक कटु सच्चाई है कि यदि महिलाएं देश की गरिमा
बढ़ाने का संकल्प कर लें तो कुछ ही महीनों में वे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति के पुरुषवादी
मानसिकता वाले पुरुष स्त्री-मुक्ति के पक्षधर नहीं होते हैं उन्हें पुरुषों की
स्वच्छंदता और मुक्तता अच्छी लगती है और जब स्त्रियों की स्वच्छंदता की बात की
जाती है तो इस मानसिकता वाले पुरुष ढेरों सवाल खड़े कर देते हैं.
स्पष्ट है कि
स्त्री-पुरुष समानता की बात इनकी समझ से परे होती है क्योंकि ये आदतन मजबूर होते
हैं स्त्रियों को अपने से छोटा देखने और बनाए रखने जब स्त्री सामाजिक हकों और
घरेलू हकों के साथ-साथ परिवार के आर्थिक-सामाजिक तथा अन्य छोटे बडे मसलों में
फैसले लेने की हकदार बन जाएगी. तो सही मायने में स्त्री-पुरुष की समानता भी हासिल
कर लेगी. यह बड़ी अजीब सी बात है कि
स्त्री अब तक अपने अस्तित्व को ना समझ पाई.
इन परिस्थितियों को देखते
हुए मुझे लगता है कि स्त्री को अपने अस्तित्व की पहचान होनी चाहिए तभी क्रान्ति
संभव है. सबसे पहले स्त्री अपने अस्तित्व की स्पष्ट घोषणा करे कि वह है, उसका भी कोई बजूद है,
उसके होने का आयाम
भी महत्वपूर्ण है. ये सच है कि जब तक स्त्री अपने अस्तित्व की स्पष्ट घोषणा नहीं
करती, उसे वो उपलब्धी हासिल
नहीं हो सकती. जिसकी वह हकदार है. माना कि एक पत्नी का धर्म जो कहता है वो उसका
फर्ज है. पर एक स्त्री का समाज के प्रति जो धर्म है उसको देखते हुए अपने आयाम को हासिल
करे.....
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक / इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
महिला अध्यक्ष / शराबबंदी संघर्ष समिति
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