फिर वही कहानी “नारी व्यथा”
आज
फिर सुर्ख़ियों में पढ़कर एक
नारी की व्यथा,
व्यथित
कर गयी मेरे मन
को स्वतः
नारी
के दर्द में लिपटे
ये शब्द संजीव हो
उठे हैं...
इस
समाज के दम्भी पुरुष....
कभी
किसी दीवार के पार उतर
के निहारना,
नारी और पुरुष के रिश्ते की उधडन नजर आएगी तुम्हें,
कलाइयों
को कसके भींचता हुआ,
खींचता है अपनी ओर
बिस्तर
पर रेंगते हुए, बदन को
कुचलता है.....
बेबसी
और लाचारी में सिसकती है,
दबी
सहमी नारी की देह
पर ठहाकों से लिखता है,
अपने
समय की कब्र में,
एक कटुता का रिश्ता,
अपने
जख्मों को निहारती,
लहुलुहान
रिश्तों को जेहनी गुलामी
का नाम देकर
सहलाती
है, पुचकारती है, दर्द में
बिन आंसुओं के रोती है
जिन्दगी
भर उस गुलामी को
सहेजती है, ऐ खुदा
तेरी बनाई ये नारी........
माथे
की बिंदी से पाँव के
बिछुओं तक
लिखती हैं पुरुष का
नाम.....
चूड़ियों
का कहकशा, जर्द आँखों की
जलन,
बेबसी
कहीं विलीन क्यों नहीं होती l
पल
पल ठंडी राख सा
होता उसका बदन,
जलते
हुए अक्षरों का दर्द मिटा
नहीं पाता,
कि
फिर लिख देता है
पुरुष अपने बल से
नारी
की देह पे क्रूरता
की परिभाषा
बाजुओं
की पकड़ से निस्तेज
होती रूह,
कुचल
देती है नारी की
संवेदनाओं को,
लूट
के अस्मत, ये व्यभिचारी खेलते
हैं भावनाओं से,
तड़फती
कोख का दर्द लिए,
निरीह
प्राणी की तरह जीवन
जीती है, ऐ खुदा
तेरी बनाई हुई अबला नारी.........
मौलिक
एवं अप्रकाशित
सुनीता
दोहरे
प्रबंध
सम्पादक/इण्डियन
हेल्पलाइन न्यूज़
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