
फिर वही कहानी “ नारी व्यथा ” आज फिर सुर्ख़ियों में पढ़कर एक नारी की व्यथा , व्यथित कर गयी मेरे मन को स्वतः नारी के दर्द में लिपटे ये शब्द संजीव हो उठे हैं... इस समाज के दम्भी पुरुष.... कभी किसी दीवार के पार उतर के निहारना, नारी और पुरुष के रिश्ते की उधडन नजर आएगी तुम्हें, कलाइयों को कसके भींचता हुआ , खींचता है अपनी ओर बिस्तर पर रेंगते हुए , बदन को कुचलता है..... बेबसी और लाचारी में सिसकती है , दबी सहमी नारी की देह पर ठहाकों से लिखता है , अपने समय की कब्र में , एक कटुता का रिश्ता, अपने जख्मों को निहारती, लहुलुहान रिश्तों को जेहनी गुलामी का नाम देकर सहलाती है , पुचकारती है , दर्द में बिन आंसुओं के रोती है जिन्दगी भर उस गुलामी को सहेजती है , ऐ खुदा तेरी बनाई ये नारी ........ माथे की बिंदी से पाँव के बिछुओं तक में, लिखती हैं पुरुष का नाम..... चूड़ियों का कहकशा , जर्द आँखों की जलन...