आपसी फूट,अविश्वास,बिखराव,अनुशासनहीनता का नाम है भाजपा (सच का आईना )
आपसी फूट,अविश्वास,बिखराव,अनुशासनहीनता का नाम है भाजपा (सच का आईना )
बॉक्स ......
देखा
जाए तो भारत में गठजोड़ बनाकर सत्ता संभालने वाली भारतीय जनता पार्टी इन दिनों एक
दु:खद अंतर्कलह से ग़ुजर रही है. “भाजपा”
साख वाले विपक्षी दल के रूप में मात्र एक दिखावा रह गई है..................
ताज तो मिल गया नरेंद्र मोदी को. लेकिन लिपटा है बेशुमार काँटों से.
कुछ तो वक्त की चाल से और कुछ राष्ट्रीय राजनीति के दुश्मनों से. अब सामने चुनौती है नरेंद्र मोदी के, कि उनकी बीच भंवर में डगमगाती पार्टी की नैया कैसे पार लगे. अनुशासनहीनता, आपसी फूट, अविश्वास, बिखराव और कार्यकर्ताओं में घनघोर निराशा के बीच “भाजपा” में पनप रहे हैं तरह-तरह के षड्यंत्र
और “भाजपा” के नेता हैं एक दूसरों के प्रति किये षड्यंत्रों से अन्जान.
जैसे संजय जोशी से इस्ती़फा लेने के वक्त बैठक में लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली के न होने पर सुरेश सोनी का ये कहना कि संजय जोशी कार्यकारिणी में रहें या न रहें, लेकिन नरेंद्र मोदी का रहना ज़रूरी है, क्योंकि नरेंद्र मोदी न केवल गुजरात के मुख्यमंत्री हैं, बल्कि “भाजपा” के हिंदुत्व वाले चेहरे के प्रतीक भी हैं. ठीक इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी को लगता है कि तीनों सिपहसालारों में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावा पेश करेंगे और अरुण जेटली उनका साथ देंगे तो उन्होंने संजय जोशी के ऊपर हाथ रखने का फैसला कर लिया. जबकि पिछले दिनों संजय जोशी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने को आडवाणी जी ने महत्वपूर्ण रोल निभाया था लेकिन अब उन्हें लगा कि नरेंद्र मोदी को अगर कोई आदमी दायरे में रख सकता है तो वह संजय जोशी हो सकते हैं. देखा जाए तो भारत में गठजोड़ बनाकर सत्ता संभालने वाली भारतीय जनता पार्टी इन दिनों एक दु:खद अंतर्कलह से ग़ुजर रही है. सच तो ये है कि अटल जी ने जिस पार्टी को भारत की सर्वोच्च सत्ता तक पहुंचाया, उस पार्टी में अंदरूनी बिखराव के बीज को पनपते देखना अटल जी जैसी शख्सियत के लिए बहुत ही दर्दनाक होता. इसीलिए अटल जी की बीमारी अटल जी के लिए एक वरदान साबित हुई क्योंकि इसी बीमारी की वजह से वह इस दर्दनाक पीड़ा से बचे हुए हैं.
बीजेपी की अंदरूनी राजनीति को समझे बिना आने वाले समय में क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाना न मुमकिन है क्योंकि संसद में “बीजेपी” प्रमुख विपक्षी पार्टी है और कई राज्यों में उसकी सरकारें हैं. इसलिए “बीजेपी” 2014 के चुनाव में दिल्ली की गद्दी पर अपना चौपड़ बिछाने के लिए सबसे ज़्यादा परेशान दिखाई दे रही है. अरुण जेटली, यशवंत सिन्हा, गुरुमूर्ति, नरेंद्र मोदी एवं लालकृष्ण आडवाणी के साथ सुरेश सोनी ये ऐसे चुनिन्दा नाम हैं, जो केवल नाम न होकर “बीजेपी” में चल रहे अंतर्विरोधों, अवरोधों, और “बीजेपी” पर क़ब्ज़ा करने की चाह रखने वाली वो दुधारी तलवारें हैं कब किसको जख्मी कर दें ????? वैसे नरेंद्र मोदी का केस आंख खोलने वाला भी है. सुनने में आया कि सार्वजनिक रूप से नरेंद्र मोदी ने आरएसएस की हमेशा अवहेलना करते हुये उसके फैसले के खिला़फ अपनी बातें मनवाई हैं. इन सबके बाबजूद अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए जाते हैं तो हमें यह मान लेना चाहिए कि “आरएसएस” का वर्चस्व “भाजपा” के ऊपर से समाप्त हो गया है.
वहीं दूसरी तऱफ देखा जाये तो यह मास्टर प्लान खुद “आरएसएस” का है.क्योंकि संघ का मानना है कि नरेंद्र मोदी देश के सर्व स्वीकार्य नेता बनकर उभर नही सकते जब तक उनके ऊपर संघ की छाप रहेगी. लेकिन संघ से मुस्लिम कार्यकर्ताओं को तो छोड़ ही दीजिए, भाजपा के सहयोगी दल मुश्किल से नरेंद्र मोदी को एनडीए की तऱफ से प्रधानमंत्री पद का दावेदार स्वीकार करेंगे. “भाजपा” साख वाले विपक्षी दल के रूप में मात्र एक दिखावा रह गई है. अब प्रचारक स़िर्फ अपनी प्रोफाइल बनाने में लगे हैं. तथा “भाजपा” में जाने और चुनाव लड़ने का रास्ता इसे मानते हैं. भाजपा के द्वारा आए इस रोग से संघ के लोग परेशान हैं. “बीजेपी” की महाभारत की जड़ में मनोवैज्ञानिक कारण, कुछ परिस्थितिजन्य कारण का और कुछ सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की असीम चाह से बना है. “बीजेपी” के अंदरूनी बिखराव का वजूद. अब देखिये दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना को ही ले लें जो काम भाजपा नेताओं को करना चाहिए था, वह शीला दीक्षित और उनके सांसद बेटे संदीप दीक्षित ने किया. भाजपा नेताओं ने इस घटना की आलोचना तो की, लेकिन वे इसमें संभावित राजनीति को समझ ना पाए. क्योंकि आपसी कलह दिमाग को खुला रखने की सारी ताकतों को बंद कर देती है. “भाजपा” से पहले ही शीला दीक्षित ने दिल्ली पुलिस पर निशाना साधा और अपने-आपको प्रदर्शनकारियों के बीच खड़ा कर लिया. और सामूहिक बलात्कार की घटना से लेकर प्रदर्शनकारियों पर हुए हमले तक की सारी जिम्मेदारी पुलिस पर डाल दी और प्रदर्शनकारियों के प्रति सद्भाव दिखाते हुये पुलिस के खिलाफ जांच की मांग कर दी. अब देखना ये है कि इसका तात्कालिक फायदा भले ना हो पर दूरगामी फायदा तो निश्चित ही है.
“भाजपा” सामूहिक बलात्कार की घटना को लेकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की अपनी पुरानी मांग उठा सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया उलटे शीला दीक्षित ने ही दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन करने की मांग उठा दी. बहरहाल जो भी हो ये तो सत्य है कि दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग अगले चुनाव का एक बड़ा मुद्दा हो सकता था “भाजपा” के लिए. लेकिन शीला दीक्षित की शातिर राजनीति में भाजपा नेता चूक गये.......
सुनीता दोहरे ...लखनऊ ...
ताज तो मिल गया नरेंद्र मोदी को. लेकिन लिपटा है बेशुमार काँटों से.
कुछ तो वक्त की चाल से और कुछ राष्ट्रीय राजनीति के दुश्मनों से. अब सामने चुनौती है नरेंद्र मोदी के, कि उनकी बीच भंवर में डगमगाती पार्टी की नैया कैसे पार लगे. अनुशासनहीनता, आपसी फूट, अविश्वास, बिखराव और कार्यकर्ताओं में घनघोर निराशा के बीच “भाजपा” में पनप रहे हैं तरह-तरह के षड्यंत्र
और “भाजपा” के नेता हैं एक दूसरों के प्रति किये षड्यंत्रों से अन्जान.
जैसे संजय जोशी से इस्ती़फा लेने के वक्त बैठक में लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली के न होने पर सुरेश सोनी का ये कहना कि संजय जोशी कार्यकारिणी में रहें या न रहें, लेकिन नरेंद्र मोदी का रहना ज़रूरी है, क्योंकि नरेंद्र मोदी न केवल गुजरात के मुख्यमंत्री हैं, बल्कि “भाजपा” के हिंदुत्व वाले चेहरे के प्रतीक भी हैं. ठीक इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी को लगता है कि तीनों सिपहसालारों में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावा पेश करेंगे और अरुण जेटली उनका साथ देंगे तो उन्होंने संजय जोशी के ऊपर हाथ रखने का फैसला कर लिया. जबकि पिछले दिनों संजय जोशी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने को आडवाणी जी ने महत्वपूर्ण रोल निभाया था लेकिन अब उन्हें लगा कि नरेंद्र मोदी को अगर कोई आदमी दायरे में रख सकता है तो वह संजय जोशी हो सकते हैं. देखा जाए तो भारत में गठजोड़ बनाकर सत्ता संभालने वाली भारतीय जनता पार्टी इन दिनों एक दु:खद अंतर्कलह से ग़ुजर रही है. सच तो ये है कि अटल जी ने जिस पार्टी को भारत की सर्वोच्च सत्ता तक पहुंचाया, उस पार्टी में अंदरूनी बिखराव के बीज को पनपते देखना अटल जी जैसी शख्सियत के लिए बहुत ही दर्दनाक होता. इसीलिए अटल जी की बीमारी अटल जी के लिए एक वरदान साबित हुई क्योंकि इसी बीमारी की वजह से वह इस दर्दनाक पीड़ा से बचे हुए हैं.
बीजेपी की अंदरूनी राजनीति को समझे बिना आने वाले समय में क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाना न मुमकिन है क्योंकि संसद में “बीजेपी” प्रमुख विपक्षी पार्टी है और कई राज्यों में उसकी सरकारें हैं. इसलिए “बीजेपी” 2014 के चुनाव में दिल्ली की गद्दी पर अपना चौपड़ बिछाने के लिए सबसे ज़्यादा परेशान दिखाई दे रही है. अरुण जेटली, यशवंत सिन्हा, गुरुमूर्ति, नरेंद्र मोदी एवं लालकृष्ण आडवाणी के साथ सुरेश सोनी ये ऐसे चुनिन्दा नाम हैं, जो केवल नाम न होकर “बीजेपी” में चल रहे अंतर्विरोधों, अवरोधों, और “बीजेपी” पर क़ब्ज़ा करने की चाह रखने वाली वो दुधारी तलवारें हैं कब किसको जख्मी कर दें ????? वैसे नरेंद्र मोदी का केस आंख खोलने वाला भी है. सुनने में आया कि सार्वजनिक रूप से नरेंद्र मोदी ने आरएसएस की हमेशा अवहेलना करते हुये उसके फैसले के खिला़फ अपनी बातें मनवाई हैं. इन सबके बाबजूद अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए जाते हैं तो हमें यह मान लेना चाहिए कि “आरएसएस” का वर्चस्व “भाजपा” के ऊपर से समाप्त हो गया है.
वहीं दूसरी तऱफ देखा जाये तो यह मास्टर प्लान खुद “आरएसएस” का है.क्योंकि संघ का मानना है कि नरेंद्र मोदी देश के सर्व स्वीकार्य नेता बनकर उभर नही सकते जब तक उनके ऊपर संघ की छाप रहेगी. लेकिन संघ से मुस्लिम कार्यकर्ताओं को तो छोड़ ही दीजिए, भाजपा के सहयोगी दल मुश्किल से नरेंद्र मोदी को एनडीए की तऱफ से प्रधानमंत्री पद का दावेदार स्वीकार करेंगे. “भाजपा” साख वाले विपक्षी दल के रूप में मात्र एक दिखावा रह गई है. अब प्रचारक स़िर्फ अपनी प्रोफाइल बनाने में लगे हैं. तथा “भाजपा” में जाने और चुनाव लड़ने का रास्ता इसे मानते हैं. भाजपा के द्वारा आए इस रोग से संघ के लोग परेशान हैं. “बीजेपी” की महाभारत की जड़ में मनोवैज्ञानिक कारण, कुछ परिस्थितिजन्य कारण का और कुछ सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की असीम चाह से बना है. “बीजेपी” के अंदरूनी बिखराव का वजूद. अब देखिये दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना को ही ले लें जो काम भाजपा नेताओं को करना चाहिए था, वह शीला दीक्षित और उनके सांसद बेटे संदीप दीक्षित ने किया. भाजपा नेताओं ने इस घटना की आलोचना तो की, लेकिन वे इसमें संभावित राजनीति को समझ ना पाए. क्योंकि आपसी कलह दिमाग को खुला रखने की सारी ताकतों को बंद कर देती है. “भाजपा” से पहले ही शीला दीक्षित ने दिल्ली पुलिस पर निशाना साधा और अपने-आपको प्रदर्शनकारियों के बीच खड़ा कर लिया. और सामूहिक बलात्कार की घटना से लेकर प्रदर्शनकारियों पर हुए हमले तक की सारी जिम्मेदारी पुलिस पर डाल दी और प्रदर्शनकारियों के प्रति सद्भाव दिखाते हुये पुलिस के खिलाफ जांच की मांग कर दी. अब देखना ये है कि इसका तात्कालिक फायदा भले ना हो पर दूरगामी फायदा तो निश्चित ही है.
“भाजपा” सामूहिक बलात्कार की घटना को लेकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की अपनी पुरानी मांग उठा सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया उलटे शीला दीक्षित ने ही दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन करने की मांग उठा दी. बहरहाल जो भी हो ये तो सत्य है कि दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग अगले चुनाव का एक बड़ा मुद्दा हो सकता था “भाजपा” के लिए. लेकिन शीला दीक्षित की शातिर राजनीति में भाजपा नेता चूक गये.......
सुनीता दोहरे ...लखनऊ ...
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