मौत की खामोश दस्तक / जापानी इंसेफेलाईटिस यानि दिमागी बुखार
मौत की खामोश दस्तक / जापानी इंसेफेलाईटिस यानि दिमागी
बुखार
उत्तर-प्रदेश के पूर्वांचल में जापानी इंसेफेलाईटिस
का कहर इस साल भी बदस्तूर जारी है. पूर्वांचल में तीन दशक से अपना पाँव पसार चुकी
जापानी इंसेफेलाईटिस यानी दिमागी बुखार जिसने अब तक हजारों माताओं की गोद सूनी कर
दी है और न जाने कितने अनगिनत घरों के आँगन की खिलखिलाहटों को हमेशा के लिए खामोश
कर दिया है. यहाँ हजारों मासूम कुदरत के इस कहर से असमय ही काल के गाल में समा गए
हैं. मेडिकल कालेज में भर्ती मासूमो को गौर से देखें तो मौत
के मुहाने पर खड़े इन मासूमो के आँखों से निकलते आंसू इस बात की चीख-चीख कर गवाही
दे रहे है, कि ये मासूम अभी जीना चाहते है. लेकिन
स्वाइन फ्लू जैसे बुखार को अभियान की तरह रोकने की कोशिश करने वाली सरकार पिछले कई
समय से इस दिमागी बुखार की जड़ को समाप्त नहीं कर पा रही है.
देखा जाए तो बी०आर०डी० मेडिकल कालेज में भर्ती हजारों
मासूम अपनी जिन्दगी से लड़ रहे हैं. लोग दहशत और
बेबसी में जीने को मजबूर है ये कालेज गवाह है उन मासूमों का
जो इस बीमारी से तड़फ –तड़फ कर दम तोड़ रहे हैं. कितनी माताओं की चीखे रोज इन मासूमों
की मौत के सन्नाटे को चीरती हुई दिल को दहला देतीं हैं. इन माताओं को यकीन ही नहीं
होता कि उनकी गोदें सूनी हो चुकी हैं. मौत के इस भयावह
आंकड़े ने सरकार और स्वास्थ्य महकमें की “इन्सेफ्लाईटिस” से मुक्त होने के दावो की
कलई खोल कर रख दी है. मेडिकल कालेज में मरीज ऐसे बढ़ते हैं कि यहां सालभर की
तैयारियां ध्वस्त हो जाती हैं.
दिमागी बुखार से पीड़ित ये बच्चे या तो पूर्णरूप से
विकलांग हो चुके हैं या फिर उनका मानसिक संतुलन ऐसा नहीं रहा कि वो अपने दैनिक
कार्यों को कर सकें. आइये आपको रूबरू कराते हैं ऐसे ही कई बच्चों से और उनकी
माताओं से जो इस बीमारी का दंश अब तक झेल रहे हैं.
संजू नाम की एक बच्ची जो इस बीमारी से पीड़ित होने के
कारण विकलांग हो गई और विकलांगता वश अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ चुकी है. ये बच्ची
अपने टूटे फूटे शब्दों में सरकार से गुहार लगा रही है कि जापानी इंसेफेलाईटिस यानी
दिमागी बुखार को जड़ से ख़त्म कर दें. ताकि फिर कोई संजू अपनी पढ़ाई न छोड़ सके. और वही दूसरी तरफ संजू की माँ कुसुम सरकार से
दरख्वास्त करती है कि फिर किसी बच्चे को इस तरह की बीमारी न होने पाए और फिर किसी
माँ को इस दर्द का दंश न झेलना पड़े.
इस बीमारी से पीड़ित मासूम शमा का कहना है कि मैं इस जानलेवा बीमारी से बच तो गया पर ज़िन्दगी भर के लिए मुझे अपनी माँ के सहारे ही रहना पड़ेगा. तोतले जुबान में अपना नाम तो बता लेती है लेकिन खाने-पीने के लिए अपनी माँ का सहारा लेना पड़ता है. और वहीँ मासूम शमा की माँ नजमा का कहना है इस बीमारी के कारण नजमा नार्मल बच्चे की तरह नही रही. खाने पिलाने से लेकर दैनिक कार्य में साथ रहना पड़ता है. मेरी सरकार से यही फरियाद है की इस जानलेवा बीमारी को जड़ से ख़त्म किया जाये ताकि फिर कोई बच्चा इस दंश का भुग्तभोगी न हो.
इस बीमारी से पीड़ित मासूम शमा का कहना है कि मैं इस जानलेवा बीमारी से बच तो गया पर ज़िन्दगी भर के लिए मुझे अपनी माँ के सहारे ही रहना पड़ेगा. तोतले जुबान में अपना नाम तो बता लेती है लेकिन खाने-पीने के लिए अपनी माँ का सहारा लेना पड़ता है. और वहीँ मासूम शमा की माँ नजमा का कहना है इस बीमारी के कारण नजमा नार्मल बच्चे की तरह नही रही. खाने पिलाने से लेकर दैनिक कार्य में साथ रहना पड़ता है. मेरी सरकार से यही फरियाद है की इस जानलेवा बीमारी को जड़ से ख़त्म किया जाये ताकि फिर कोई बच्चा इस दंश का भुग्तभोगी न हो.
देखा जाये तो जापानी इंसेफेलाईटिस यानी दिमागी बुखार ने
पर्वांचल में सन 1978 में दस्तक देने के बाद कई बार अपना भयावह रूप
दिखाया है. सन 2005 में इस जानलेवा बीमारी ने 1500 से ऊपर बच्चों की जान ली थी. इस
बीमारी से हुई मौतों के आंकड़े का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर रोज दो
से चार मासूम केवल मेडिकल कालेज में ही दम तोड़ देते हैं. इंसेफेलाइटिस, यह वह नाम है जिसे सुनते ही पूर्वांचल के लोग दहशत में आ
जाते हैं. यहां के राजनीतिज्ञों के लिए ये एक चुनावी मुद्दा बनकर रह गया है. सरकारी
इंतजाम ऊंट के मुंह में जीरा साबित होते हैं कुछ डाक्टरों के लिए पीड़ा तो कुछ के लिए कमाई का जरिया
भी है.
हमें आंकड़ो से ये ज्ञात होता है कि इस वर्ष जनवरी 2013 से अब तक भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या 1481
है. जबकि अभी हाल में 184 बच्चों
का इलाज चल रहा है. कुल 1481 मरीजों का जे०ई० सैम्पल भेजा गया था जिसमें 114 पॉजिटिव और
925 निगेटिव थे जबकि इनमें से 442 के रिजल्ट अभी भी आने बाक़ी हैं.
देखा जाए तो जनवरी से अब तक जिसमें 527 बच्चों
की मौत हो चुकी है. इन आंकड़ों को देखते हुए इन मौतों की भयावहता को महसूस किया जा
सकता है कि पिछले 33 वर्षों में इसकी चपेट में आकर असमय
ही काल के गाल में समाने वाले मासूमों की संख्या क्या होगी ? ना जाने कितने मासूम
इस बीमारी की बलि चढ़ गये लेकिन ना ही इस
पर कोई लगाम लगा पाया है और ना ही कोई कारागर योजना आज तक बन पायी है.
अगर डा० के.पी.कुशवाहा प्रिंसपल बी०आर०डी मेडिकल
कालेज, गोरखपुर की माने तो ज्यादातर बच्चों को बुखार के साथ झटके आने की
शिकायत मिलने पर वार्ड में इलाज किया जा रहा है. इस नई बीमारी का नाम “एक्यूट
इंसेफ्लाईटिस सिंड्रोम” रखा गया है.
गौरतलब है कि जापानी इंसेफेलाईटिस यानी दिमागी बुखार एक क्युलेक्स प्रजाति की मादा मक्छर के काटने से होता है. जब ये मच्छर प्रजनन हेतु सूअर के खून से प्रोटीन प्राप्त करने के लिए उसके खून को चूसकर किसी बच्चे को काटता है तब उस बच्चे को जापानी इंसेफेलाईटिस हो जाता है. और आज के हालत ये हैं कि अब ये बीमारी दूषित जल और गंदगी के कारण होने लगी है. यहाँ पर गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, सिद्दार्थनगर, बस्ती, संतकबीरनगर और बिहार से आने वाले बच्चों की तादाद ज्यादा होने के कारण उनका इलाज मेडिकल कालेज के साथ-साथ जिला अस्पताल में भी हो रहा है.
इस बीमारी से पीड़ित बच्चों की मौत का एक सबसे बड़ा मुख्य कारण ये भी है कि समय से सैम्पल की जांच नहीं हो पाती है. देखा जाए तो “एक्यूट इंसेफ्लाईटिस सिंड्रोम” जैसी इस अज्ञात बीमारी की पहचान देर से होना भी सरकार की कार्यवाहियों पर एक सवाल खड़ा करती है. अगर आज इस बीमारी को लेकर केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार अपना कड़ा रुख अख्तियार कर ले तो इस बीमारी पर जल्द ही काबू पाया जा सकता है.
गौरतलब है कि जापानी इंसेफेलाईटिस यानी दिमागी बुखार एक क्युलेक्स प्रजाति की मादा मक्छर के काटने से होता है. जब ये मच्छर प्रजनन हेतु सूअर के खून से प्रोटीन प्राप्त करने के लिए उसके खून को चूसकर किसी बच्चे को काटता है तब उस बच्चे को जापानी इंसेफेलाईटिस हो जाता है. और आज के हालत ये हैं कि अब ये बीमारी दूषित जल और गंदगी के कारण होने लगी है. यहाँ पर गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, सिद्दार्थनगर, बस्ती, संतकबीरनगर और बिहार से आने वाले बच्चों की तादाद ज्यादा होने के कारण उनका इलाज मेडिकल कालेज के साथ-साथ जिला अस्पताल में भी हो रहा है.
इस बीमारी से पीड़ित बच्चों की मौत का एक सबसे बड़ा मुख्य कारण ये भी है कि समय से सैम्पल की जांच नहीं हो पाती है. देखा जाए तो “एक्यूट इंसेफ्लाईटिस सिंड्रोम” जैसी इस अज्ञात बीमारी की पहचान देर से होना भी सरकार की कार्यवाहियों पर एक सवाल खड़ा करती है. अगर आज इस बीमारी को लेकर केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार अपना कड़ा रुख अख्तियार कर ले तो इस बीमारी पर जल्द ही काबू पाया जा सकता है.
सुनने में आ रहा है कि 2011 में केंद्र सरकार ने इसके लिए धन
मुहैया करवाया था लेकिन अभी तक ग्राउंड लेबल पर सब कुछ जीरो नजर आ रहा है. सरकार
अगर चाहे तो अपनी राजनीति छोड़कर इस महामारी के प्रति गंभीर होकर कड़े कदम उठा सकती
है.
मच्छरों के मार्फत तेजी से बच्चों में फैलने वाले वायरस से यह बीमारी फैलती
है. गंदे पानी और सूअर जल में रहने वाले पक्षियों में यह वायरस मिलता है. आपको एक
बात बता दें कि छुआछूत से ये मर्ज नहीं फैलता है. बच्चे इसमें तेज बुखार के साथ बेहोश
हो जाते हैं और उनकी मौत हो जाती है. शुरुआत के 15 दिनों तक आम फ्लू जैसे रहता है फिर बुखार, सिर दर्द, उल्टी,
डायरिया और जुकाम आदि की शिकायत होती है बाद में मरीज
को झटके आना, बेहोशी छा जाना, मेमोरी लॉस और
व्यावहारिक परिवर्तन हो जाता है और कुछ मरीजों को तो लकवा भी मार जाता है.15 वर्ष तक की आयु के बच्चे इसकी चपेट में आते हैं. वर्तमान में इसका सर्वाधिक
प्रकोप पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में व्याप्त है.
सरकार भले ही लाख दावे
करे लेकिन आंकड़े गवाह हैं कि जब चुनाव करीब आते हैं. तभी सरकार को इंसेफेलाईटिस से
पीड़ित बच्चों की याद आती है. 35 साल से लगातार इस
बीमारी के कहर से बच्चों की थमतीं सांसें भी इन्हें झकझोर नहीं रहीं हैं. इस दिमागी बुखार से सैकड़ों की तादाद में हो रही मासूम मौतें भी सरकारी तंत्र की
सुस्ती तोड़ने में पूरी तरह नाकाम साबित हो रही हैं....
सुनीता दोहरे .....
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