“बांस की सवारी”
तो फिर घमंड किस बात का जनाब...! ज़िन्दगी भर की ऐंठन 5 मिनट में राख़ हो जाती है!!
आप चाहें जितननी मंहगी से महंगी कार को खरीद लें लेकिन अंत में “बांस की सवारी”
ही साथ देती है l इसलिए इस बात को बखूबी समझ लीजिये कि जो “राम-राम” कहता है, या जो “अल्लाह-अल्लाह” कहता है,
राम कहने वालों को सूर्य उतनी
ही रौशनी देता है जितनी कि अल्लाह कहने वालों को देता है l और वे लोग जिन्होंने
कभी ईश्वर में विश्वास ही नहीं किया उनको भी सूर्य रौशनी, चाँद चांदनी देता है, प्रकृति हवा-पानी यानि कि सब कुछ बराबर मिलता
है तो फिर आप कौन होते हैं जाति और धर्म का बटवारा करने वाले l जिसको हमने अनुभव नहीं किया, वो हमारी समझ से परे है यानि हम उसे समझ नहीं सकते l
मैं मानती हूँ कि व्यक्ति को अपने समाज, संस्कृति और देश पर नाज होना
चाहिए है। और साथ ही स्वयं पर गर्व होना चाहिए। इससे हमारे अंदर स्वाभिमान पैदा
होता है। यह आत्मविश्वास जगाता है और आत्मसम्मान दिलाता है। हमें गर्व करने में तो कोई
हर्ज नहीं मगर प्रजातंत्र की जो हालत है उसको बताने की आवश्यकता नहीं। बस
भीड़तंत्र है जिसमें “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली कहावत चरितार्थ होती है। लेकिन अगर
दूसरा पहलू देखा जाये तो कुछ लोगो को घमंड होता है अपने बंश पर, अपने परिवार पर, अपनी जाति पर, अपनी अमीरी आदि पर l ये कहाँ तक उचित है l रंगभेद, जातिभेद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, न जाने कितने भेद और वाद हमारे अंदर कूट-कूट कर भरे हैं। घमंड करनेवाले अपनी काबिलीयत, रूप-रंग, दौलत या ओहदे की वजह से खुद को दूसरों से बड़ा समझते है।
ये घमंड और पाखण्ड से भरे लोग किस बात का गुमान करते हैं ? अगर गोर से देखे तो यहाँ कुछ भी अपना नहीं है l रूह भी तो खुदा की बख्शी नेमत
है और जिस्म है कि मिटटी की अमानत है l फिर कैसा घमंड ? मृत्यु पश्चात् व्यक्ति को
वायुमंडल में विलीन होकर शून्य हो जाना ही है और यही शून्य होना पूर्णता का पर्याय
होता है। सब यही रह जाता है l ये बात तो पूर्णतया सत्य है कि मनुष्य की पहचान उसके
द्वारा किये हुए कार्यों से होती है l मरणोपरांत सिर्फ मनुष्य के कार्य ही उसकी
पहचान बनकर रह जाते हैं l
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक / इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
महिला अध्यक्ष / शराबबंदी संघर्ष समिति
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