बांगवान ( सच का आइना )

बांगवान शब्द पर लिखने बैठी तो मन भटक रहा था फिर सोचा ! कि जो इस समाज

में हो रहा है ! हम वही आज लिखेंगे ! मन में हजारों तरह के सवाल उठ रहे
थे ! हमारे जीवन की सच्चाई यही है ! कि हम आज भी ये भ्रम पाले हुये हैं !
कि अगर हमारे माँ-बाप हमारे साथ रहेंगे,तो हमारे बच्चे पढ़ नहीं पायेंगे
! हम अपने माँ- बाप पर ध्यान देंगे, तो बच्चों को समय नहीं दे पायेंगे !
पर हमारा ये सोचना कहाँ तक उचित है !
पहले हमारे बुजुर्ग अपनी बेटी का कन्यादान करते थे ! लेकिन आज हम अपने
बेटे का ही दान कर देते हैं ! हम अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देते हैं
! अच्छे कालेज में उच्च शिक्षा के लिए भेजते है ! पढने के बाद वो नौकरी
में जाते है ! फिर उनकी हम शादी कर देते है, शादी के बाद बच्चे पराये हो
जाते है !  शायद उन्हें अपनी खुद की जिंदगी अच्छी लगने लगती है ! और
माता-पिता की जिंदगी से उनको कोई खास लगाव नहीं रह जाता है !
मैंने सोचा कि देश के नागरकों से भी इस मसले पर बात की जाये में निकल
पड़ी ! अपनी इस मुहिम पर, मेरी जिन लोंगों से बात हुई ! मैं उस चऱचा को
यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ !
श्री रवि शंकर जी का कहना है कि ! उनका बेटा जो बनारस में है ! उनकी कभी
सुध ही नहीं लेता है ! आज कल सीमित परिवार का दौर चल निकला है ! जहाँ
माँ-बाप और दो बच्चों को ही एक परिवार कहा जाता है ! संयुक्त-परिवार गायब
होते जा रहे हैं, और इसके साथ ही बुजुर्गों की जगह भी ऐसे परिवारों से
गायब होती जा रही है ! अक्सर हम अपने बच्चों और अपने परिवार के लिए जीते
है ! लेकिन अंतिम समय में वही बच्चे हमारे साथ नहीं रहते हैं ! उनकी
असहनीय पीड़ा सहन नहीं हो रही थी ! और उनका जिन्दगी के प्रति सोचने का
नजरिया कितना सही है !
श्रीमती अनीता सेठ से  ये सवाल पूछने पर कि-----
प्रश्न:-- बागवान शब्द से आप क्या समझती हैं ? इसमें माँ-बाप और बच्चों
का क्या रोल होता है !
वो कहती हैं----कि हर माता पिता यही चाहता है ! कि वो अपने बच्चों को एक
अच्छा इंसान बनाये ! और उसको हर अच्छी बुरी बातों से   परिचित कराया जाए,
मगर इस प्रतियोगिता भरे  दौर की मारा-मारी में सब ख्याल कहीं दब कर रह
जाते हैं ! माता पिता अपने नौकरी और घर के बीच संतुलन बनाते-बनाते एक
समुचित दायरे में सिमट कर रह गये हैं ! और बच्चे अपने आप को इस दौर के
लायक बनाने के लिए पढ़ाई, इन्टरनेट, अतिरिक्त क्लास, कसरतके गोल-गोल
पहिये में, एक चमकीले भविष्य और अच्छी  नौकरी, और एक बेहतरीन ज़िन्दगी के
लिए लगातार हर दिशा में दौड़ लगा रहे है!
और इस भाग दौड़, भरी ज़िन्दगी की आपा धापी में इनका नन्हा बचपन कही कुचल
कर रह गया है !
फिर वो कहती हैं कि---और रही बात इन बुजुर्गों की तो----इन बुजुर्गों की
वजह से आज हमारा वजूद है ! ये वो लोग हैं ! जिन्हें हम कहीं पीछे छोड़
आये हैं ! अपने ही सामर्थ्यवान बच्चों द्वारा सही परवरिश न करने, त्याग
देने के कारण इन लाचार  कमजोर एवं  बेबस लोगों का  जीना  दूभर  हो जाता
है ! ऐसी परिस्थिति में राह से भटके हुऐ बहू-बेटों को मार्ग में लाने के
लिए  आपका ये लेख सब लोंगों को ये महसूस करायेगा कि बुज़ुर्ग हमारे घर की
इज्जत होते हैं !ये लोग  अपनी  ज़िम्मेदारी समझ कर अपने घर के बुजुर्गों
की सही देखभाल करें !
श्री मती शहोदरा देवी का इस विषय पर ये कहना है कि-------कभी-कभी ये भी
देखने को आता  है ! कि समाज में  कुछ लोग माँ-बाप की बहुत  अच्छी तरह से
सेवा करते हैं ! माँ-बाप की सेवा से बढ़कर कोई परोपकार नहीं होता !
परमात्मा की प्राप्ति तो बडे़ बुजुर्गो की इज्जत और सेवा करने से करने से
होती है ! धर्म का पालन करना बच्चा घर से सीखता है !  भूखे को अन्न
खिलाकर, प्यासे को पानी पिलाकर और जरूरतमंद की मदद करने में परमानंद की
प्राप्ति होती है ! आपका पहला धर्म यह है-- कि आप अपने बच्चों को सही
रास्ता दिखाओ ! ताकि वे अच्छे नागरिक बनकर अपने समाज और देश क नाम रोशन
कर सके!
में खुद आपको एक हकीकत से रूबरू कराना चाहती हँ, इटावा शहर में हम लोग
जाया करते थे ! वहाँ पर मेरी मुलाकात एक ऐसी महिला से हुई जिसे में प्यार
से आन्टी कहने लगी, वो दिल की बहुत ही नेक महिला थी उनका नाम
श्री-मती मालती देवी था !
श्री-मती मालती देवी जी का कहना था  ! कि, आज-कल के बच्चे बस, एक रिश्ते
को निभाते है ! माँ-बाप और परिवार से उन्हैं कोई मतलब नहीं होता ! उनकी
बातों में दर्द था, मै यह महसूस कर रही थी ! शायद उनके बच्चे अपनी
जिम्मेदारी को सही तरीके से नहीं निभा पा रहे थे ! तभी उनके दिल में ऐसी
बातें थी ! वो महिला अपनी परेशानियाँ तो नहीं बताती थी ! लेकिन बातों ही
बातों में जीवन की सच्चाई से रूबरू जरुर करा देती थी ! लगता था कि उनका
मन बहुत दुखी है ! वो बराबर यह बात कहती थी कि --मुझमें इतनी शक्ति नहीं
है ! कि जाती हुई जिन्दगी को पकड़ संकू ! जिंदगी हाथो से धीरे-धीरे
फिशलती जा रही है ! उनमे जीने की लालसा थी ! लेकिन स्वास्थ उनका साथ
नहीं दे रहा था ! क्यों कि वो अक्सर यह कहती थी ! कि मै जीना चाहती हूँ !
शायद धीरे-धीरे मौत के आगोश में जा रही हूँ !
तक़रीबन एक साल बाद जब मैं अपनी ससुराल गई ! तो दूसरे दिन उनसे मिलने के
लिए मैं उनके घर गई ! उनके पति से मुलाकात हुई ...वो रोते हुए बोले कि !
वो बराबर तुमको याद करती रही ! लेकिन तुमसे बात नहीं हो पाई ! वो तो अपनी
अनंत-यात्रा पर अकेले ही चली गई ! मुझे साथ लेकर नहीं गई ! अब उसके बगैर
यह जिंदगी कैसे काटूँगा ! उनके रुदन में जो दर्द था ! वो मुझे अन्दर तक
झकझोर गया !
कभी-कभी सोंचती हूँ ! कि जिंदगी इतनी बे-मानी क्यों है,जिनके लिए जिंदगी
भर कि जमा-पूंजी उनके भविष्य को बनाने में लगा देते है ! आज के भौतिक-युग
में पैसा अपने खून के रिश्ते से भी सर्वोपरि हो गया है !
आज के दौर में जब भी अपने चारों और नज़र डालती हूँ ! तो देखती हूँ कि
प्रतियोगिता के इस दौर में बच्चे एक मशीन की तरह से नज़र आते हैं ! उनको
एक ही एक मकसद सिखाया जाता है ! बड़ी से बड़ी डिग्री हासिल करनी है ! और
बड़े से बड़े पद को हासिल करना है ! और इन सब के बीच सामाजिक महत्व के
बारे में जानकारी और उनके संस्कार, लगातार ग़ायब होते जा रहे है !   अपने
अनजाने भविष्य की तरफ  बेतहाशा भागते हुए, इन मशीनी  बच्चों और नौजवानों
को देख कर अजीब सा महसूस होता है !
जो तहज़ीब और संस्कार हमारे बुजुर्गों में थी ! और लगभग हमारी पीढ़ी तक
आने के बाद अब एक बड़ा अन्तर आ गया है !  और इस अन्तर को बढ़ाने में कहीं
न कहीं एक माँ -बाप के रूप में हम भी इसके कुसूरवार हैं ! क्योंकि जो
तहज़ीब, संस्कार और सामाजिक महत्व हमें अपने बुजुर्गों से विरासत में
मिली थी ! हम उनको आगे बढाने में नाकाम होते जा रहे हैं ! और इसकी वजह
साफ़ तौर पर इस भागम-भाग और मार-काट वाली प्रतिस्पर्धा ही है ! परिवार से
ही उनको काफी बुनियादी बातें और ऊँच- नीच, झूठ -सच, सबके बारे में किस्से
,कहानियों और बातों के ज़रिये, धार्मिक-किताबों के ज़रिये ,अच्छी तरह से
बुज़ुर्ग समझा दिया करते थे ! बचपन में परिवारों में बुज़ुर्ग और माँ-बाप
अपने बच्चों को प्रेरित करने वाली कहानी सुनाते थे ! बच्चों को
अच्छी-अच्छी कहानियां और किस्से सुना कर उनमें संस्कार और समझ भरी जाती
थी,! मगर अब यह सब बातें एक गुजरे जमाने की तरह से ख़त्म हो सी गयी हैं !
इसके लिए देखा जाए तो बदलते हुए दौर में ब्यस्त- जिन्दगी की रफ्तार काफी
हद तक ज़िम्मेदार हैं ! ऐसे में जहाँ माता-पिता दोनों ही नौकरी करते हों,
और बच्चे घर के नौकरों के हवाले हों ! वहां कौन इन नन्हे-मुन्नों को यह
सारी शिक्षा, संस्कार, तहज़ीब, और सामाजिक महत्व के बारे में बतायेगा !
और फिर दूसरी बात आजकल के इस दौर में हर आदमी मशीनी हो गया है, हर काम एक
सोचे समझे प्रोग्राम के तहत होता है ! यहाँ तक की बच्चा भी, और फिर उसको
पैदा होने के बाद कौन से स्कूल में दाखिला कराना है ! और फिर स्कूल के
बाद कौन से कालेज में, फिर डाक्टर या इन्जीनियर क्या बनाना है ! यह सब
उसके पैदा होने से पहले ही कार्यक्रम तय कर लिया जाता है ! या पैदा होते
ही तय हो जाता है, यानि बच्चा एक मशीनी रोबोट बना दिया जाता है ! उसकी
पूरी लाइफ का प्रोग्राम बना कर उसको उसी के हिसाब से टाइम-टेबल में फिट
कर दिया जाता है ! और फिर यह मशीनी बच्चा दिन भर एक मशीन की तरह सुबह उठ
कर, टिफन लेकर स्कूल, फिर ट्यूशन, फिर योगा-क्लास, फिर तैराकी, फिर
जुडो-क्लास, फिर घर आकर होम-वर्क, और फिर थक कर सो जाना ! इन सब कामों के
बीच बच्चा सिमट कर रह जाता है !
अब ऐसे बच्चों को कैसे किसी अच्छी और बुरी बात के बारे में या संस्कार और
सामाजिक महत्व के बारे पता चलेगा ! ऐसे में यह बच्चे अपनी विरासत से दूर
होते जा रहे हैं !अच्छा क्या है, बुरा क्या हैसमझने का समय ही नहीं
मिलता है !
माता-पिता बच्चे से चाह कर भी फुर्सत से बैठ कर बात नहीं कर पाते हैं !
क्योंकि खुद उनके पास ही वक़्त नहीं है ! और अगर है--तो फिर बच्चों के
पास नहीं है !  क्योंकि अगर बच्चों को वक़्त मिलता है ! तो उसके लिए
मनोरंजन के इतने साधन हैं ! हमारे समय में बुज़ुर्ग फुर्सत के वक़्त हमें
अपनी ज़िन्दगी का निचोड़ और अच्छी-अच्छी बातें बताते थे ! पढने को
अच्छी-अच्छी किताबें और कामिक्स हुआ करती थीं ! मगर आज के बच्चों के पास
मनोरंजन के  लिए कंप्यूटर हैं, इन्टरनेट है, विडिओ गेम हैं, मोबाइल है,
और उसकी दुनिया भी यही है !
सभी ने अपने माँ-बाप की सद्भभावनाओं को कभी न कभी महसूस किया होगा। फिर
ऐसी क्या बात है कि लोग एक समय के बाद अपने बच्चों से सगा और माँ-बाप से
गैर की तरह व्यवहार करने लगते हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है ! अच्छी नैतिकता
वाली फिल्म, किताब या प्रवचन सुनकर, सभी का मन माँ-बाप के प्रति अगाध
श्रद्धा से भर जाता है, लेकिन व्यवहार चार दिन बाद फिर जैसे का तैसा हो
जाता है। माँ-बाप अपने बच्चों से बहुत प्यार करते हैं ! पिता का बेटे के
साथ और माँ का अपनी बेटी के साथ यह दोस्ताना रवैया, जहाँ एक ओर सुखद
अहसास का अनुभव कराता है, वहीं यह परिवार का दृढ़ आधार-स्तंभ भी होता है
!

साया बन हर कदम पे, खड़े होते हैं पिता !
लड़खड़ाये जो कभी हम,सही राह दिखाते हैं पिता !!
फूलों से भरी इस बगिया के बागबान होते हैं पिता !
देने को अच्छा मुकाम,पूँजी जीवन की लुटा देते हैं पिता !!
खुश रहे बेटी घर में, कर्ज ले के घर बसाते देते हैं पिता !
समझे ना थे कभी, आज अहसास है जब ख़ुद बने हैं पिता !!
                                             







सुनीता दोहरे 

प्रबंध सम्पादक / इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़ 

महिला अध्यक्ष / शराबबंदी संघर्ष समिति 

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