कल और आज के इस आधुनिक युग में दिल्ली ( सच का आईना )



कल और आज के इस आधुनिक युग में वही भव्यता का
सदियों पुराना शास्त्र ले कर दिल्ली फिर से  
अभ्यावेदनों की दुनिया से मरहूम होकर
जवां दिल्ली अब खिलाफत के नए शब्दों में पारंगत हो चुकी है
जिसमें भ्रष्टाचार एक अहम पहलू है जो आज के जवां मौसम में
पूरे भारत को अपनी चपेट में लिए हुये है !
भ्रष्टाचार से लवरेज नेता गरीबों के पसीने से नहाते हैं
और उनकी आँहों को संगीत समझकर
उनकी मेहनत की कमाई के तले फल-फूल  रहे है !
सत्याग्रह बहिष्कारअसहयोग और सविनय अविज्ञा
अपने और बेगाने के भिन्न-भिन्न प्रतीक
लोगों को संगठित करने के नए तरीके
मानो गरीब और अमीर  के बीच की खाई को
भरने के लिए कई ऐसे बेनाम पुलों का निर्माण
हो रहा हो जैसे इन पुलों के सहारे वो दुनियां पे अपनी हुकूमत
कर दलाली का बाजार सजा के रंग रेलियां मना सकें...
और गरीब जनता को ये सन्देश देने को उतावले हो कि 
इन पुलों को पार करके ही तुम पाओगे
श्वेतशुभ्र लिबास में लिपटी अन्नत दौलत ……..
ठीक यही नजारा उन दिनों इसके बिलकुल उलट था
जब क्रांतिकारियों ने देश को आजाद करने की मुहिम शुरू की थी
अपनी जान की परवाह ना करते हुये !
देश पर मर-मिटने वाले वाले ऐसे वीर पुरुष थे !
जनता के उल्लास से बार-बार उठते कई हुजूम थे
सड़कों पर हर रोज सुबह,दोपहर,शाम सभी उजले-उजले
गांधी टोपियों और खादी के कुर्तों और सूती साड़ियों में सजे हुये
अपने मन की उमंग और तरंग में हवाओं से फड़फड़ाते हुये
ऐसे लगते थे मानो दुनियां की सारी जंग जीत ली हो !
लेकिन ये बेबस और लाचार परिंदे ना जाने क्यों
हर बार यह भूल जाते हैं कि सेंट्रल असेंबली के बम के पीछे
गांधी टोपियां और खादी के कुर्तों के कपड़ों की ही नहीं
बिना कपड़ों के असहाय बेबस मजदूरों की भी
बेशुमार और ह्र्दय विदारक चीखें शामिल थीं
दिल्ली में बिना दरारों के पुल और बिना गढ्ढों की
लरजती सी सड़कें उन दिनों कभी नहीं दिखाई दी थी
आजाद मुल्क की राजधानी दिल्ली में आजादी की
पहली सुबह की पौ फटते ही जिन एहसासों के साथ
खुशनुमा सुबह को आना चाहिए था वैसी नहीं आई !
कुछ तो आदमी हमेशा से अपनी किस्मत को दोष देता रहा है
कुछ विभेदों के पूरी तरह मिटने की आशा भी संशकित और सहमी सी थी
खुशी के दिन भी कुछ काले बादल में तब्दील हो गये
एक बहुत बड़ा हिस्सा जो अपना था वह अपना न रहा
शामत आई तो उन निहत्थों पर जिनकी दुनियाँ ही दिल्ली थी
दिल्ली टूट कर फुट- फुट कर रोई लोगों के घर उजड़ गये !
दस्तरखान सिमट गए रोटियाँ टुकड़ों में बंट गईं
लिजलिजी बरसात की उस टूटी-फूटी धूप में
जहाँ चौपाल लगते थे वो सूने हो गये
कुछ दुखयारों से इलाके ही नहीं पूरी की पूरी दिल्ली छूट गई
अपने आँचल में लपेट कर मिट्टी की गंध तो ले गए,
पर अपनों की मिट्टी धरी रह गईचीत्कार करती रही मानवता
दिल्ली फिर से सवालों का उलझा हुआ शहर बन गयी  .......
कई सवालात जहन में गोते खाने लगे .....
ये सवालात आज भी मेरे दिल को व्यथित करते रहते हैं
पर कोई जवाब नही मिलता है ! जहन बार-बार
इन मुश्किल सवालातों से रूबरू होता है.....जैसे ..... 
दंगाइयों की दहशत भी अगर दिल्ली के उन्हीं गलियारों को रक्त से भिगो चुकी थी
तो वह कत्ल हुए बाशिंदों से अधिक मजहबी कैसे हो गया ?
पाकिस्तान का इबादतखाना  जहां नमाज पढकर खुदा को याद करते हैं
क्या वो दिल्ली की जामा मस्जिद और दरगाहों से अधिक पुख्ता था ?
महात्मा गांधी हमारे ( राष्ट्रपिता ) हे राम बोल कर क्यों मरे ?
वह कौन सा हिंदू था क्या धर्म था उसका जिसने उन्हें मार डाला ?
लाहौर में काले कबूतर दिल्ली के सफ़ेद कबूतरों से
ज्यादा करतबी कब से हो गए ?
क्योंकि सफ़ेद कबूतर तो शांति का प्रतीक होते हैं
क्या शरणार्थिंयों के कैंपों की जिल्लत और रंज से आहत हुई दिल्ली
क्या सचमुच कुछ कट्टर और बेरहम हो गई है ?
क्या हमारे भारत से अंग्रेजी हुकूमत सचमुच चली गई ?
क्या सचमुच अंग्रेजों के द्वारा दी हुई जिल्लत अभी भी बरकरार है ?
अगर नहीं तो फिर दिल्ली और समूचे भारत में जनता के साथ
अन्याय क्यों ये भ्रष्टाचार क्यों एक आम आदमी त्रस्त क्यों ?
इन गरीबों के लिए छत के नाम पर फुटपाथ क्यों ?
और नेताओं के लिए आलीशान बंगले क्यों ?
जबकि हम एक ही खुदा की संतान हैं तो फिर क्यों .....
ऐसे कई सवाल हैं जिनसे दिल्ली और हमारा भारत हमेशा से आक्रांत रहा है
लाल किले पर तिरंगा साल दर साल फहरता रहा है..........
प्रधानमंत्री छाँव में सैलूट करते रहे हैं और जनता धूप में तपती रही है
ये कल भी होता था और आज भी होता है और लगता है आगे भी होता रहेगा !
पटेल नगर करोल बागऔर पंजाबी बाग की बड़ी और शानदार कोठियों में
शरणार्थियों ने एक अनूठे और अमिट जीवट का अध्याय भी लिखा था !
कॉलेजों में दुनिया को एक नयी दिशा में बदलने की हवा बड़े जोर शोर से चली थी
कॉफी हाउस में नए फलसफे नई उमंग और नई कहानियों के बीच
कॉफी से भरे प्यालों की खुश्बू और चुस्कियों के बीच कॉफी मसले बुने गये थे
ऐसे लगता था कि हर मसला चुटकियों में सुलट जाएगा ...
ढेर सारी सिगरेटों के टुकडों को रेत भरे प्यालों में मसल कर बुझाया गया
नार्थ ब्लाक और साउथ ब्लाक राष्ट्रीयकरण के चमकते और सपनीले दौर में भी घिसटते रहे
नेहरू का शांति वन विचारधारा का विश्वविद्यालय बन शागूफों
की भेंट सुलगता रहा सरकार आँखें मूंदे अपनी तिजोरियां भरती रही
अदब का दिल्ली बढ़ते यातायात के दबाव में अपने मध्यम सुर में
अपने यातायात के हर नियम को तोड़ता गया………
आम आदमी दिल्ली की रंगीनियों में खोता गया
और सियासत करने वाले सियासी खेल-खेलते रहे !
इस भारत पे सियासत करने वाले और भारत में रहने वाले
विश्व की सुन्दरतम और चमकती दुनियां की कहानी में खो गये
यू.एन.डी.पी. विदेशी कंपनीवालेऔर यहाँ तक कि
भारतीय नौकरशाह भी एक अदभुत कहानी बयां करते हैं !
ये हमारे उभरते और गिरते भारत की तस्वीर है ! रही बात हमारी
राजधानी दिल्ली की तो वो निरंतर अपनी तस्वीर बदलने में लगी रहती है
विश्व की अट्टालिकाओं में जो वैश्वी सोना जमा हो रहा है
उसका चमकता द्रव्य बूँद-बूँद रिस कर नीचे ही गिरेगा
सब दिल्ली पर निर्भर है कि वह सवालों की जकड़ से बाहर आ कर
कितनी तेजी से अपनी खाली हथेलियों में लपक लेती है
साँसें फुलाते हुए,आसमान की ओर देखती हुई मासूम दिल्ली
विश्व से अपनी खुशहाली खींच कर मुट्ठियों में बंद करने को व्याकुल
ये मासूम सी दिल्ली गाड़ियों की बेतहाशा बढ़ती कतारों से दहल जाती है
पर हर शाम हजारों रहने वालों के लिए दिल्ली फिर एक शहर हो जाती है
अमीर अपनी हवेलियों में दुबक जाते हैं गरीब रात सड़क पर बिताते है
बेबस मजबूर अपना पेट पालने के लिए दिन रात मेहनत करते हैं
और दिल्ली अपनी बेबसी पर आंसूं बहाती है ............


सुनीता दोहरे

प्रबंध सम्पादक / इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़

महिला अध्यक्ष / शराबबंदी संघर्ष समिति 

                                                                                                                      

  

Comments

Popular posts from this blog

इस आधुनिक युग में स्त्री आज भी पुरुषों के समकक्ष नहीं(सच का आइना )

किशोरियों की व्यक्तिगत स्वच्छता बेहद अहम...

10 दिसंबर अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस ( सच का आईना )

.देवदासी प्रथा एक घिनौना रूप जिसे धर्म के नाम पर सहमति प्राप्त !

बड़की भाभी का बलिदान . ✍ (एक कहानी ) "स्वरचित"

डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक महान नारीवादी चिंतक थे।

महिला पुरुष की प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि पूरक है(सच का आईना )

कच्ची पक्की नीम निबोली, कंघना बोले, पिया की गोरी

भड़कीले, शोख व अंग-दिखाऊ कपड़ों में महिलाओं की गरिमा धूमिल होने का खतरा बना रहता है...