निज भाषा का नहीं गर्व जिसे, क्या प्रेम देश से होगा उसे….


अगर देखा जाये तो हिन्दी की वर्तमान दुर्दशा के लिए बहुत हद तक हिन्दी को सम्मान दिलाने की बात करने वाले राजनेता, नौकरशाह, बुद्विजीवी, लेखक तथा पत्रकार सम्मिलित रूप से जिम्मेदार हैंl ……
एक मात्र हिंदी ही ऐसी भाषा है l जो संपूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बांध कर चल रही है l हिंदी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। य़ह अपने आप में पूर्ण रूप से एक समर्थ और सक्षम भाषा है। हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि संस्कृति का नाम होने के साथ-साथ हिंदी विश्व की सबसे शक्तिशाली भाषा है l ये हमारे गौरव को बढ़ाती है और साथ ही हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित सभ्यता का प्रतीक भी है l सबसे बड़ी बात है कि यह भाषा जैसे लिखी जाती है, वैसे बोली भी जाती है। दूसरी भाषाओं में कई अक्षर साइलेंट होते हैं और उनके उच्चारण भी लोग अलग-अलग करते हैं, लेकिन हिंदी के साथ ऐसा नहीं होता, इसीलिए हिंदी को बहुत सरल भाषा कहा जाता है। हिंदी अति उदार, समझ में आने वाली सहिष्णु भाषा होने के साथ भारत की राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका भी है। किसी भी आर्थिक रूप से प्रगति करते देश की राजभाषा वहाँ के लोगो के साथ-साथ हमेशा तेज़ी से बढती जाती है क्योकि वे लोग जानते है कि किसी भी बाहरी देश में उनकी राजभाषा और संस्कृति ही उनकी पहचान बनने वाली है। उसी तरह से हम भारतीयों को भी हमारी राजभाषा को महत्त्व देना चाहिये। क्योकि हिंदी भाषा ही हमारे महान प्राचीन इतिहास को उजागर करती है और वही हमारी पहचान है.
देखा जाये तो बुद्धिजीवी-वर्ग के साथ-साथ लेखक वर्ग, शासन व प्रशासन हिंदी की दुहाई तो बहुत देता है लेकिन अपने कुल-दीपकों को अँग्रेजी माध्यम में दाखिला करवाकर शिक्षा दिलवाना चाहता है l जबकि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु सर्वाधिक आसानी से अपनी मातृभाषा को ही ग्रहण कर पाता है और मातृभाषा में किसी भी बात को भली-भांति समझ सकता है। अंग्रेज़ी भारतीयों की मातृभाषा नहीं है। अत: भारत में बच्चों की शिक्षा का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम हिंदी ही है। इस बुद्धिजीवी-वर्ग से मैं यही कहना चाहूंगी कि अँग्रेजी पढ़िए इसके साथ-साथ जितनी और अधिक भाषाएं सीख सकें सीखिए लेकिन किंतु अपनी भाषा को हीन करके या बिसराने की कीमत पर कदापि नहीं.
ये हमारे देश का दुर्भाग्य है कि “हिंदी भाषा” का महत्व धीरे-धीरे नीचे गिर रहा है। जो लोग हिंदी बोलते हैं उन्हें तथाकथित हाई क्लास सोसाइटी द्वारा संदेह की दृष्टि के साथ देखा जाता है। लोग सार्वजनिक स्थानों में हिंदी बोलते वक़्त शर्म महसूस करते हैं। ऐसे में हिन्दी अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे करेगी? यह जानकर जन-साधारण को आश्‍चर्य होगा कि आजादी से पहले हिन्दी पूरे देश की भाषा थी। इसके रंग में कमोबेश पूरा देश सराबोर था। इसका स्वरूप जनभाषा का था। किंतु स्वतंत्रता के बाद हिन्दी को राजभाषा की गद्दी पर बैठाया गया और यह राजभाषा बनकर सरकारी हिन्दी बन गई। पिछले तिरसठ सालों में यह व्यावहारिक से अव्यावहारिक बन गई। हम भारतवासियों को हिंदी बोलने में शर्म नहीं गर्व होना चाहिए l हालांकि मैंने यह भी देखा है कि बहुत से शिक्षित लोग हिंदी में बहुत आत्मविश्वास से बातचीत करते हैं.
हिंदी को लेकर आज की सच्चाई ये हैं जैसे कि हिंदी ही नहीं, देश की बाकी भाषाएं भी अंगरेजी के मुकाबले पिछड़ रही हैं l आज के हालातों में जो स्थितियां बन रही हैं उनमें लगातार अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ रहा है और हिन्दी लगातार किनारे हो रही है l चूंकि हिन्दी इतने बड़े इलाके में बोली जाती है और इतने ज्यादा लोग उससे जुड़े हुए हैं तो वो लगातार बनी हुई है l लेकिन अब दिक्कत ये हो रही है कि अंग्रेजी के कारण जो बेहतर रूप, अद्यतन ज्ञान और जो विकसित ज्ञान है, वो उन तक न पहुंच पाने से उनकी उसमें हिस्सेदारी हो रही है l भाषा का मुख्य काम जनता की हिस्सेदारी है तो इतने बड़े समाज को अलग करके आप एक पराई भाषा पर निर्भर कैसे हो सकते हैं ? अतः हमें अगर एक समाज को विकसित करना है तो अपनी भाषा को तो अपनाना ही पड़ेगा.
भारत में हिन्दी का दर्जा संवैधानिक रूप से दूसरी भाषाओं से ऊंचा है, उसको इसी ऊंचे रूप में स्थापित रहने के लिए अगर आप अपने को ऊंचा नहीं उठाओगे तो राजभाषा का दर्जा लेने का आपको कोई अधिकार नहीं है l इसके साथ-साथ हिन्दी को दूसरी भारतीय भाषाओं में प्रमुख भूमिका में रहते हुए अपना परचम फहराना होगा l दूसरी बड़ी बात देशवासी हिन्दी का इस्तेमाल न करके और एक विदेशी भाषा का इस्तेमाल करके, जो करोड़ों लोग हैं, उनको सत्ता से, ज्ञान से, प्रशासन से, व्यवसाय की बहुत सारी चीजों से वंचित कर रहे हैं l क्या ये उचित है ? राजनेताओं ने तो हमेशा इसके साथ सौतेला व्यवहार किया है। उन्होंने हिन्दी को सिद्धांत और व्यवहार के रूप में कभी लागू करने की कोशिश ही नहीं की.
हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक या स्थानीय भाषाओं और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं। इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है, किंतु हिंदी को वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम विश्व भाषा बनाने के लिए इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना होगा। अनेक क्षेत्रों में हिंदी की मानक शब्दावली है, जहां नहीं है, वहां क्रमशः आकार ले रही है।
शिक्षा में अंग्रेजी की घुसपैठ को बढ़ते हुए देखकर मुझे तो ये लगता है कि 100 सालों बाद हिन्दी की स्थिति क्या होगी l अंग्रेजी माध्यम के स्कूल बढ़े हैं, निम्न मध्यवर्ग के भीतर अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की ललक बढ़ी है, ज्ञान के नये क्षेत्र, मसलन सूचना-प्रौद्योगिकी और प्रबंधन की शिक्षा-सामग्री मुख्य रूप से अंग्रेजी में है और इससे मोटी तनख्वाह वाली नौकरियां भी अंग्रेजी में ही हैं l विचार करने की बात यह है कि महीने में छह हजार रुपए कमाने वाला आदमी भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ाना चाहता है l वह समझता है कि आज अंग्रेजी ही नौकरी और प्रतिष्ठा दिलवा सकती है l धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेजी का बोलबाला शुरू हो जाएगा l अमीर-गरीब दोनों के स्कूल अलग, रिहायश के इलाके अलग, वाहन अलग, जल और बिजली की पूर्ति अलग और इसी के साथ-साथ बैंक खाते अलग और उनकी भाषा भी अलग l ये विचार करके तो मुझे लगता है कि हिन्दी बची रहेगी, पर गरीबों की भाषा के रूप में l ये सत्य है कि अगर हालात यही रहे तो संपन्न वर्ग अंग्रेजी में अपने को व्यक्त करेगा, गरीब लोग हिन्दी बोलेंगे l अर्थात हिन्दी उस-उस क्षेत्र में बनी रहेगी, जहां-जहां अविकास है. लेकिन सोचनीय ये है कि विकास होते ही अंग्रेजी आ धमकेगी l और ये भी सत्य है कि प्रश्नकर्ता के दिमाग में यह बात धीरे-धीरे उतरने लगेगी कि हिन्दी का भविष्य है भी और नहीं भी है l हिंदी को मरने नहीं दिया जाएगा, पर जीने भी नहीं दिया जाएगा.
आज आर्थिक और तकनिकी विकास के साथ-साथ हिंदी भाषा अपने महत्त्व को खोती चली जा रही है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय भाषाओं से हिन्दी और हिन्दी से भारतीय भाषाएं हैं.
देखा जाये तो हिन्दी से विदेशी भाषाएं, विदेशी भाषाओं से हिन्दी, का अनुवाद करने की हमारे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है ये साहित्य अकादमी इत्यादि हैं तो ये साल में चन्द किताबें निकालकर खुश हो जाते हैं आपको क्या लगता है कि ये चन्द किताबें हमारे देश में हिंदी के प्रति अपनी ईमानदारी पूरी कर पातीं हैं अगर हिंदी को उसके शिखर तक मेरे हिसाब से अनुवाद का एक पूरा मंत्रालय होना चाहिए l केन्द्रीय सरकार को चाहिए कि एक ऐसा अनुवाद मंत्रालय तैयार करे जो दूसरी भाषाओं से हिंदी और हिन्दी से दूसरी भाषाओं का अनुवाद हो सके ताकि हजार किताबों का आदान-प्रदान दूसरी भाषाओं में हो सके l अगर ऐसा होता है तो हम हिंदी के प्रति सही मायने में कुछ कर पायेंगे l हिंदी देश की धरोहर है, जिस तरह हम तिरंगे को सम्मान देते है l उसी तरह हमें हमारी राजभाषा को भी सम्मान देना चाहिये। हम खुद जब तक इस बात को स्वीकार नही करते तब तक हम दूसरो को इस बात पर भरोसा नही दिला सकते।

सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक / इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
महिला अध्यश / शराबबंदी संघर्ष समिति

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