सत्य की ध्वजा फहराते हुए समाज को भी परहित की सीख दे।......
सभी महान धर्म मनुष्य के अमरत्व को उसके कर्मो से जोड़ते हैं, शरीर से नहीं। देह का यह दर्शन हमेशा से अति मानवीय फंतासी का हिस्सा रहा है। इस संसार में हर कोई अमर होना चाहता है। लोग अमरत्व प्राप्त करने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं। लेकिन, इस अमरता के करीब पहुंच कर भी शरीर की नश्वरता को स्वीकार करना ही होता है। कहते हैं कि अमरत्व की चाह सृष्टि में किसे नहीं होती परन्तु सार्थक लक्ष्य के बिना जीवन निस्सार है। प्राचीन काल से ही अमरता की कल्पना हमेशा लोगों को लुभाती रही है। कोई भी व्यक्ति मृत्यु का वरण नहीं करना चाहता है। जब से मानव इस धरा पर आया है, तभी से वह अमरत्व की खोज में है .
देखा जाये हमारे
धर्मग्रंथों के अनुसार, अमर देवताओं ने कितने अवतार पृथ्वी पर लिए, लेकिन उन्हें
शरीर छोड़कर जाना ही पड़ा l परन्तु विचारणीय यह है कि क्या हमें अमरत्व चाहिए ? और यदि चाहिए भी
तो क्या हम इस अमरत्व का सदुपयोग कर पाएंगे ? सदुपयोग ना कर
पाने कि स्थिति में हमे इस नश्वर संसार में अधिक रहकर क्या करना, जहाँ प्रतिपल
सबकुछ छीजता ही जा रहा है, चाहे वह काया हो या अपने से जुड़ा कुछ भी, मनुष्य
अपनों के बीच अपनों के कारण ही जीता और सुखी रहता है, ऐसे अमरत्व का
क्या करना जो अकेले भोगना हो...संवेदनशील मनुष्य संभवतः यही चाहेगा और यदि कोई
कठोर ह्रदय व्यक्ति ऐसा जीवन पा भी ले तो क्या वह सचमुच सुखोपभोग कर पायेगा या
दुनिया को कुछ दे पायेगा l आपने गौतम बुद्ध के बारे में अवश्य सुना होगा, या किसी और ऐसे
व्यक्ति के बारे में जिसने मानव जाति की भलाई के लिए बहुत काम किया हो, गौतम बुद्ध ने एक राजा होते हुए भी अपना राज्य
और धन-दौलत त्याग दिया था। उनकी महानता उनके मौन में थी, उनकी महानता उनकी
ध्यानमग्नता और उनकी करुणा में थी । मेरे विचार से
हमारे श्रेष्ठतम कर्मों से मृत्योपरांत ही अमरता प्राप्त होती है l अगर जीवन में
मानवीय गुणों का संचार न हो तो जीवन मृत्यु के समान हो जाता है। उस पर अलक्षित और
दिशाहीन जीवन अगर अंतहीन हो जाय तो जीव अपने इस अंतहीन जीवन से पीड़ित होने लगता
है। सर्वप्रथम हमें अमरत्व के झूठे विचार को त्याग देना चाहिए, दूसरा हमें अपनी
समझ को शांत करना चाहिए, तीसरा, हमें ह्रदय की
सतुष्टि की खोज करनी चाहिए|
मनुष्य मोह माया के बंधन
में ऐसे जकड़ जाते हैं यानि हमे ये नस्वर संसार इतना पसंद आ जाता है कि हम हर संभव
प्रयास से जीवन को बनाये और संजोये रखना चाहते हैं| इसलिए हमारी
दूसरों पर निर्भरता बढती है और यह निर्भरता मन में कृपणता एवम् खिन्नता के भाव
पैदा करती है| देखा जाये तो सांसारिक जीवन के दोनों पहलू “जीवन और मृत्य” ये शास्वत आनंद और
अमरत्व की इच्छा से सम्बंधित है l जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच
और कार्य ही बना पाते हैं, यह हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए ।
भारतीय संस्कृति में
परशुराम, व्यास, बलि, कृपाचार्य, विभीषण और
अश्वत्थामा ऐसे महापुरुषों के चरित्रों से भरी पूरी है जिन्हें कि अमरता का वरदान
प्राप्त है। परन्तु इन अमर चरित्रों के इस अंतहीन जीवन के कष्ट और पीड़ा के बारे
में शायद ही किसी ने विचार किया हो।
ये एक कटु सच्चाई है कि गौतम बुद्ध अमर
हो गए, कबीर अमर हो गए, भगत सिंह अमर हो गए, इसलिए नहीं कि उनकी आत्मा जन्म-मृत्यु
के बंधन से मुक्त होकर परमात्मा के साथ मिलकर अब भी यहीं कहीं चक्कर काटती है।
बल्कि इसलिए कि लाखों-करोड़ों लोग अब भी उनको याद करते हैं। सत्य यही है कि अपने
अच्छे कर्मों के द्वारा दूसरों के दिमाग में जिसने जगह बना ली वही अमर हो गया.
इसलिए अगर अमरत्व पीने की
सोच रहे हैं तो सत्कर्मों का प्याला जिसने पिया वही अमर हो गया l बस फर्क इतना है
कि छोटी अमरता वो होती है जिसमें आपके हित-मित्र जान-पहचान वाले आपको याद रखते है।
और महान अमरता वो होती है जब वो लोग भी आपको याद रखते हों, जो आपको निजी तौर पर नहीं
जानते । क्यूंकि इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है। मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए इसे ही
अपनाना होगा। सच्चा अमरत्व यही है जो परिस्थितियों से कदापि हार न माने और सत्य की
ध्वजा फहराते हुए समाज को भी परहित की सीख दे।
सुनीता दोहरे
प्रबन्ध संपाक/ इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
महिला अध्यक्ष/ शराबबंदी संघर्ष समिति
प्रबन्ध संपाक/ इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
महिला अध्यक्ष/ शराबबंदी संघर्ष समिति
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