सिर्फ जिक्र भर से रुह कांप जाती हैं
देवदासियों को अतीत की
बात मान लेना गलत होगा। दक्षिण भारतीय मंदिरों में किसी न किसी रूप में आज भी उनका
अस्तित्व है। देवदासी प्रथा को परिवार और उनके समुदाय से प्रथागत मंज़ूरी मिलती है
देवदासी प्रथा 21वीं सदी के मानव समाज के लिये शर्मसार करने वाली हैं। इन्हीं
कुरीतियों में से एक है- देवदासी प्रथा l सिर्फ कहने को कर्नाटक और
महाराष्ट्र में देवदासी प्रथा उन्मूलन संबंधी कानून पहले से ही प्रभावी हैं। इसके
अलावा भारतीय दंड संहिता की धारा-370 व 370 ए और इंमोरल ट्रैफिक प्रीवेंशन एक्ट
में वेश्यावृत्ति गैरकानूनी है।लेकिन सत्य यही है कि देवदासियां आज भी हैं.
जिन्दगी के अंतिम पडाव कि
ओर अग्रसर इन सभी देवदासियों के दर्द एक जैसे हैं। बहुत कोशिशों के बावजूद भी
देवदासियां अपनी ढलती उम्र पर काबू नहीं कर पाती । उम्र की उस चौखट पर पहुंच चुकी
देवदासी जहां सिमटता योवन भी कामुकता नहीं
जगा पाता l तब ये देवदासियां नशे की आदी हो जाती हैं। सभी के जख्म एक
जैसे हैं, सभी गूंगी और असहाय सी कातर निगाहों से एक दूसरे को देखती
रहतीं है पर कुछ कर नहीं सकतीं l सिर्फ कहने को देवदासी प्रथा कानूनन बंद कर दी
गई है पर ये प्रथा ठीक उसी प्रकार बंद है जैसे दहेज प्रथा.....
'देवदासी' प्रथा आखिर है
क्या? देवदासी प्रथा यूं तो भारत में हजारों साल पुरानी है, पर वक्त के साथ
इसका मूल रूप बदलता गया l इसकी शुरुआत को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है, पर ज्यादातर
मानते हैं कि ये प्रथा छठी सदी में शुरू हुई थी। प्राचीन समय से ही हमारे समाज में
तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों का बोलबाला रहा है जो समय के साथ व्यापक वैज्ञानिक
चेतना के विकसित होने से धीरे-धीरे लुप्त होते गए। किंतु हमारे समाज में आज भी कुछ
ऐसी कुरीतियों और अंधविश्वासों का अभ्यास व्यापक पैमाने पर किया जाता है l हजारों
साल पहले धर्म के नाम पर चलाई गई ये रीति लड़कियों के शारीरिक शोषण का एक बहाना
मात्र है जिसे भगवान और धर्म के नाम पर इन मासूम लड़कियों को जबरन पहना दिया जाता
है। एक ऐसी बेड़ी जिसको पहनाने के बाद कभी न खोली जा सकती है और न तोड़ी जा सकती है।
शिक्षा के अभाव के कारण देवदासी बनने के लिए मासूम बच्चियों को देवी.देवता को
अर्पित करने का अंधविश्वास सामाजिक-सांस्कृ्तिक रूप से पिछड़े समाजों में आम है। सामाजिक-आर्थिक
रूप से हाशिये पर स्थित समुदायों की लड़कियाँ इस कुप्रथा की शिकार बनती रहीं हैं
जिसके बाद उन्हें देह व्यापार के दल-दल में झोंक दिया जाता है। देवदासी प्रथा को
परिवार और उनके समुदाय से प्रथागत मंज़ूरी मिलती है। भारतीय संस्कृति की कथित
महानता के नाम पर घनघोर ब्राह्मणवादी ग्रंथ तक से उद्धृत की जाने वाली ‘यत्र नार्यस्तु
पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ जैसी पंक्तियों
की उलटबांसी की कलई उस समय खुल जाती है जब हम छोटी-छोटी बच्चियों को धार्मिक
परम्परा के नाम पर देवदासियों के रूप में
मन्दिरों के ‘देवताओं’ को समर्पित किये जाने की अति प्राचीन परम्परा
हमारे देश में पाते हैं। वो महिलाएं जो धर्म के नाम पर दान कर दी जातीं
हैं और फिर उनका जीवन धर्म और शारीरिक शोषण के बीच जूझता रहता है l जो सारी जिंदगी इन ब्राह्मणों और मंदिर के पुजारियों की
हवस का शिकार बनती रहती
है… लेकिन क्या आप जानते
हैं कि ये घिनौनी प्रथा आज भी जारी है. आज भी आंध्र प्रदेश में, विशेषकर तेलंगाना क्षेत्र में गरीब महिलाओं को
देवदासी बनाने या देवी देवताओं के नाम पर मंदिरों में छोड़े जाने की रस्म चल रही है. “देवदासी बनी महिलाओं को इस
बात का भी अधिकार नहीं रह जाता कि वो किसी की हवस का शिकार होने से इंकार कर सकें” l जिस शारीरिक शोषण
के शिकार होने के
सिर्फ जिक्र भर से रुह कांप जाती हैं, उस दिल दहला देने वाले शोषण को सामना ये देवदासियां हर दिन करती हैं l देवदासी
प्रथा भारत के दक्षिणी पश्चिम हिस्से में सदियों से चले आ रहे धार्मिक उन्माद की उपज
है. जिन बालिकाओं को देवी-देवता को समर्पित किया जाता है, वह देवदासी कहलाती हैं। देवदासी का विवाह
देवी-देवता से हुआ माना जाता है, वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं कर सकती ।
सभी पुरुषों में देवी-देवता का अक्श मान उसकी इच्छा पूर्ति करती हैं देवी/देवताओं को प्रसन्न करने के लिये सेवक के
रूप में युवा लड़कियों को मंदिरों में समर्पित करने की यह कुप्रथा न केवल कर्नाटक
में बनी हुई है, बल्कि पड़ोसी राज्य गोवा में भी फैलती जा रही है। देवदासी
प्रथा की प्रकृति और देवदासियों के लिए परंपरागत रूप से निर्दिष्टम कर्तव्यों में
गुजरते वक्त् के साथ काफी बदलाव तो आये हैं किंतु खेद की बात है कि आजादी के इतने
सालों के बाद भी देश के कुछ इलाकों में विशेषतरू दक्षिण भारत में आज भी यह कुप्रथा
फल.फूल रही है। देवदासी अकसर मंदिर के पुजारी की हवश का शिकार होती है और जब
पुजारी का मन भर जाता तो वो अन्य लोगो को भी इस देव दासी का भोग करने के लिए
भेजता और कमाई भी करता था/ है… तो इन देवदासियों के
बच्चे होना भी आम बात है पर उन बच्चो को कोई बाप का नाम नही देता था ना मंदिर का
पुजारी और ना ही वो लोग जो देवदासियों को अपनी मर्दानगी से रौंदते है l देवदासी प्रथा धर्म की आड़ में चलाई जाने वाली एक
प्रकार की वेश्यावृत्ति रही थी जिसमें देवदासी की स्थिति एक वेश्या से भी बदतर थी
क्यों कि वेश्या को तो अपने शरीर के बदले कुछ आय हो जाती है और वह अपनी देह बेचने
से इनकार भी कर सकती है किंतु देवदासी को तो मुफ्त में ही सामंत वर्ग की हवस शांत
करनी होती थी और उसकी इच्छा .अनिच्छा की परवाह भी प्राय: कोई करने को बाध्य न था। दक्षिण भारतीय मंदिरों में किसी न किसी
रूप में आज भी दासियाँ हैं। स्वतंत्रता के बाद लगभग डेढ़ लाख कन्याएं देवी-देवताओं
को समर्पित की गई थीं। चरम पर पहुंची आधुनिकता में भी यह कुप्रथा कई रूपों में
जारी है। कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्रप्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को
गैरकानूनी घोषित कर दिया था, लेकिन मंदिरों में देवदासियों का गुजारा बहुत
पहले से ही मुश्किल हो गया था। अपनी जवानी को स्वाहा करने के बाद इन देवदासियों का
बुढ़ापा बेहद कष्टमय गुजरता है l दो वक्त का भोजन तक नसीब नहीं होता l जिस मंदिर
में देव की ब्याहता कहलाती थीं उसी मंदिर
की सीढ़ियों में भीख माँगने को मजबूर होतीं है l पेट की आग सिर्फ रोटी की भाषा
समझती है पर बुजुर्ग देवदासियाँ एड़ियाँ रगड़ कर मरने को लाचार हो जातीं हैं… कई बार भूख और
बीमारी के चलते उन्हीं सीढ़ियों पर दम तोड़ देती हैं। अस्तु स्त्री सशक्तिकरण के
नाम पर भारतीय संस्कृति का बचाव करने वाले सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को समझना
होगा कि देवदासी प्रथा के अस्तित्व से आँखें मोड़ लेने से धर्म के नाम पर चलने
वाली भारतीय स्त्री की यौन दासता की सच्चाई छिप नहीं सकती। देवदासी प्रथा हिंदू
धर्म के लिए गौरव की बात नहीं अपितु कलंक की बात है। सदियों से चली आ रही इस परम्परा
का अब ख़तम होना बहुत ही जरुरी है। देवदासी प्रथा हमारे इतिहास का और संस्कृति का
एक पुराना और काला अध्याय है, जिसका आज के समय में कोई औचित्य नहीं है। इस
प्रथा के खात्मे से कहीं ज्यादा उन बच्चियों के भविष्य की नींव का मजबूत होना बहुत
आवश्यक है, जिनके ऊपर हमारे आने वाले भारत का भविष्य है। उनके जैसे
परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी बहुत जरुरी है।
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक /इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
महिला अध्यक्ष / शराबबंदी संघर्ष समित
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक /इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
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